Tag: लामू का किला इतिहास

  • अध्याय V कोल विद्रोह की पूर्व संध्या पर पलामू और रांची (जुलाई 1813-दिसंबर 1830)

    1. उपनिवेशवादी विस्तार और प्रशासनिक परिवर्तन

    ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभाव

    1800 के दशक की शुरुआत तक, बक्सर की लड़ाई (1764) के बाद क्षेत्रीय शक्तियों के पतन और कंपनी के शासन के विस्तार के चलते पलामू और रांची अप्रत्यक्ष ब्रिटिश नियंत्रण में आ गए थे।

    ज़मींदारी प्रणाली की शुरुआत

    स्थायी बंदोबस्त (1793) और ज़मींदारी प्रणाली ने पारंपरिक आदिवासी भूमि अधिकारों को बाधित किया। आदिवासी भूमि गैर-आदिवासी ज़मींदारों (दिकुओं) को सौंप दी गई।

    राजस्व दबाव और कानूनी परिवर्तन

    ब्रिटिशों के राजस्व केंद्रित दृष्टिकोण ने नए कानूनी और प्रशासनिक ढांचे थोपे, जो प्रायः साहूकारों और ज़मींदारों के पक्ष में थे, आदिवासियों के नहीं।

    2. आदिवासी समुदाय और बढ़ता असंतोष

    प्रमुख जनजातियाँ

    • कोल (ब्रिटिशों द्वारा विभिन्न जनजातियों के लिए प्रयुक्त छत्र शब्द)
    • मुंडा
    • उरांव
    • हो

    मूल शिकायतें

    • भूमि का नुकसान: ऋण, दिकुओं द्वारा ज़मीन हड़पने और कानूनी धोखाधड़ी के कारण आदिवासियों की पैतृक भूमि छीनी गई।
    • शोषण: आदिवासी प्रायः बंधुआ मज़दूर या भूमिहीन कृषक बना दिए गए।
    • आदिवासी स्वायत्तता का ह्रास: पारंपरिक आदिवासी नेता (मानकी और मुंडा) राजस्व अधिकारियों और अदालतों द्वारा हटा दिए गए।

    3. कोल विद्रोह (1831–1832)

    विद्रोह का उद्गम और प्रसार

    चोटानागपुर पठार (विशेषतः रांची, पलामू, सिंहभूम और हजारीबाग) में यह विद्रोह फूटा। यह ज़मींदारों, साहूकारों और औपनिवेशिक अधिकारियों के प्रति बढ़ती नाराज़गी से प्रेरित था।

    विद्रोह का स्वरूप

    • संगठित आदिवासी दलों ने ज़मींदारों, साहूकारों और औपनिवेशिक प्रतिष्ठानों पर हमले किए।
    • यह विद्रोह औपनिवेशिक शासन के विरोध और सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की रक्षा दोनों के रूप में उभरा।

    ब्रिटिश प्रतिक्रिया

    ब्रिटिश सेना ने 1832 की शुरुआत तक विद्रोह को क्रूरता से दबा दिया। उन्होंने आदिवासी असंतोष की गहराई और उनकी संगठन क्षमता को कम करके आँका।

    4. परिणाम और विरासत

    दमन और नियंत्रण

    यद्यपि विद्रोह को दबा दिया गया, लेकिन इसने ब्रिटिशों को आदिवासी क्षेत्रों की संवेदनशीलता का एहसास करा दिया।

    नीतिगत परिवर्तन

    ब्रिटिशों ने आदिवासी क्षेत्रों में अधिक सतर्क रुख अपनाया, जो अंततः भारत शासन अधिनियम (1935) के “अर्जित एवं आंशिक रूप से अर्जित क्षेत्र” प्रावधान में परिलक्षित हुआ।

    ऐतिहासिक महत्व

    यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध पहला बड़ा आदिवासी जनविद्रोह था, जिसने आगे चलकर संथाल विद्रोह (1855–56) और बिरसा मुंडा का उलगुलान (1899–1900) जैसे आंदोलनों की नींव रखी।

    📌 कोल विद्रोह से पहले के प्रमुख विषय और संदर्भ

    I. तामर और चोटानागपुर में असंतोष के मूल कारण

    • ब्रिटिश सत्ता के प्रति असंतोष: इतकी और तामर के ज़मींदारों जैसे कई स्थानीय प्रमुख ब्रिटिश नागरिक और सैनिक अधिकार को पूरी तरह स्वीकार नहीं करते थे।
    • भौगोलिक लाभ: पहाड़ी और वनाच्छादित इलाकों ने आदिवासियों और विद्रोहियों को प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान की।
    • संचार और विश्वास की कमी: सरकार और आदिवासियों के बीच संवादहीनता थी; कानूनी व्यवस्था अप्राप्य थी और प्रतिकार ही एकमात्र उपाय बन गया।
    • स्थानीय शासकों का दमन: गोविंद शाही जैसे शासक अत्याचारी माने जाते थे, जिससे विद्रोह की भावना को बढ़ावा मिला।

    II. प्रमुख व्यक्ति और घटनाएँ

    • गोविंद शाही (तामर प्रमुख): अत्याचारी कहे जाते थे, उनके व्यवहार ने स्थानीय विद्रोहों को प्रज्वलित किया।
    • मेजर रफसेज: ब्रिटिश सैन्य अधिकारी, रणनीतिक रूप से सतर्क लेकिन अंततः दमनकारी।
    • कॉल्विन (जंगल महल के मजिस्ट्रेट): विद्रोह को शांतिपूर्वक सुलझाने के पक्षधर, मध्यम और मेल-मिलाप की नीति पर बल।
    • कुंता मुंडा और रुदन: करिश्माई आदिवासी नेता, जो अंततः पकड़े गए लेकिन प्रतिरोध के प्रतीक बन गए।

    III. तामर की अशांति की समयरेखा (1819–1821)

    • अगस्त 1819: विद्रोह शुरू हुआ; सितंबर तक तीव्र हो गया।
    • दिसंबर 1819 – जनवरी 1820: विद्रोही पुराना नगर में जम गए; बाद में वनों की ओर खदेड़े गए।
    • जुलाई 1820: रुदन गिरफ्तार।
    • प्रारंभिक 1821: कुंता के नेतृत्व में नए विद्रोह की आशंका, ब्रिटिश सतर्कता से विफल।
    • मध्य 1821: तामर और चोटानागपुर में सामान्य शांति स्थापित।

    IV. चोटानागपुर में विस्तार (1821)

    • सिंहभूम के लरका कोलों से प्रेरित होकर विद्रोह चोटानागपुर में फैला।
    • राधानाथ पांडे की वापसी जैसे आंतरिक राजनीतिक तनावों से यह और भड़का।
    • मई 1821 तक ब्रिटिशों ने इसे पुनः दबा दिया।

    🧩 व्यापक ऐतिहासिक महत्व

    • कोल विद्रोह (1831) कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि यह दशकों की पीड़ा, भूमि विवाद, दमनकारी शासन और आदिवासी संस्कृति की उपेक्षा का परिणाम था।
    • तामर का अनुभव एक आदिवासी विद्रोह के प्रारूप को दर्शाता है — स्थानीय नेता, भू-आधारित शिकायतें, भौगोलिक लाभ और बाहरी शासकों के प्रति अविश्वास।
    • ब्रिटिशों ने कुछ हद तक मेल-मिलाप की कोशिश की, लेकिन अंततः सैन्य शक्ति और सहयोगी ज़मींदारों (जैसे गोविंद शाही) पर भरोसा किया।

    V. पलामू और रांची: कोल विद्रोह से पूर्व की स्थिति

    I. पारंपरिक सत्ता का पतन

    • नागवंशी शासकों का प्रभाव:
      • जगन्नाथ शाह देव अब भी 1827 में सम्मानित थे।
      • उत्तराधिकार की मान्यता, उपाधि प्रदान करने की शक्ति रखते थे।
    • ब्रिटिशों द्वारा अपमान:
      • ब्रिटिश अधिकारी नागवंशी अधिकार को असहनीय मानते थे।
      • जगन्नाथ शाह देव ब्रिटिश नीति से क्षुब्ध थे और अपने लोगों के शोषण से परिचित थे।

    II. आदिवासी जनसंख्या का उत्पीड़न

    • आर्थिक शोषण:
      • अत्यधिक कर, अवैध वसूली, बंधुआ श्रम और मृत्यु जैसे निजी कारणों पर जुर्माना।
      • जे. थॉमसन ने बताया कि आदिवासी मुफ्त श्रम देने को मजबूर थे।
    • घरेलू स्वायत्तता का उल्लंघन:
      • घरेलू शराब पर हुंडी कर (1826 में समाप्त हुआ) ने घरेलू गोपनीयता को भंग किया।

    III. न्याय व्यवस्था और प्रशासन का पतन

    • भूमि से बेदखली:
      • ब्रिटिश न्यायालय आदिवासियों के लिए पराई और दमनकारी थीं।
      • आदिवासियों को विद्रोही मान लिया गया, न कि अपने अधिकारों का रक्षक।
    • प्रशासनिक疎 alienation:
      • 1817 के बाद बंगाल-बिहार से लाए गए अधिकारी नियुक्त हुए, जो आदिवासी जीवन से अपरिचित थे।
    • भ्रष्टाचार और अवैध वसूली:
      • अधीनस्थ अधिकारी गोनालिगरी, सलामी, अफीम जुर्माना आदि की वसूली करते थे।

    IV. व्यापक असंतोष और विद्रोह की तैयारी

    • केवल आदिवासी नहीं:
      • बड़े ज़मींदार भी अल्पकालिक बंदोबस्त और कानूनी पेचिदगियों से असंतुष्ट थे।
    • कुलीन वर्ग का अपमान:
      • उच्चवर्गीय लोग भी आपराधिक न्याय के अंतर्गत लाए गए, जिससे सांस्कृतिक अपमान महसूस हुआ।
    • विद्रोह की दिशा में अग्रसर:
      • सभी वर्गों में साझा पीड़ा की भावना बनी; आदिवासी विशेष रूप से अपनी स्वायत्तता पुनः प्राप्त करने को प्रेरित थे।

    VI. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और विद्रोह की ओर अंतिम धक्का

    • ऐतिहासिक संप्रभुता:
      • नागवंशी और चेरो शासकों ने मुगल आधिपत्य को खारिज किया और स्वतंत्र शासन बनाए रखा।
    • कंपनी अधिग्रहण:
      • 1760–1770 के दशक में पलामू और रांची पर नियंत्रण पाने की ब्रिटिश कोशिशें शुरू हुईं।
    • देशी सत्ता का पतन:
      • 1813 तक चेरो वंश समाप्त हुआ और 1817 में नागवंशी केवल ज़मींदार बनकर रह गए।
    • पूर्व सहयोगियों का प्रतिरोध:
      • जयनाथ सिंह, सुगंध राय और गजराज राय जैसे नेता ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध खड़े हुए।

    विद्रोह के बीज

    ब्रिटिशों ने आदिवासी संस्कृति, भूमि अधिकार और न्यायिक प्रशासन को न समझा और न ही सम्मान दिया।
    1775–1830 के बीच हुए लगातार विद्रोहों ने कोल विद्रोह की भूमिका तैयार की।
    यह विद्रोह एक साझा प्रतिरोध था —

    • आदिवासियों का,
    • पूर्व शासक परिवारों का,
    • और वंचित कुलीनों का।

  • अध्याय III: पलामू और रांची में ब्रिटिश प्रवेश (अगस्त 1765 – अगस्त 1771)

    खंड A: पलामू और रांची में कंपनी की बढ़ती रुचि

    दीवानी अनुदान और ब्रिटिश धारणाएँ
    • 12 अगस्त 1765 को मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी (राजस्व वसूली अधिकार) ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दी।
    • कंपनी ने मान लिया कि पलामू (जहाँ चेरो राज करते थे) और रांची (जहाँ नागवंशी शासक थे) बिहार का हिस्सा हैं और इसलिए उन्हें कर देना होगा।
    • परंतु ये क्षेत्र अर्ध-स्वायत्त थे और मुग़ल प्रशासनिक नियंत्रण में कभी पूर्णतः नहीं आए थे।
    पर्वतीय प्रमुखों की स्थिति
    • नागवंशी और चेरो शासक स्वतंत्र थे और केवल समय-समय पर दबाव में आकर कर देते थे।
    • इनके अपने न्यायालय, सेना और वंशानुगत शासन प्रणाली थी जो मुग़ल-नियंत्रित ज़मींदारों से अलग थी।
    रणनीतिक और आर्थिक हित
    • कंपनी बनारस के लिए सुरक्षित और लाभकारी व्यापार मार्ग खोजना चाहती थी जो छोटानागपुर और पलामू से होकर जाता था।
    • 1763 में मीर कासिम के विरुद्ध अभियानों के दौरान ब्रिटिश सैनिक छोटानागपुर पठार पार कर चुके थे।
    • पलामू विद्रोही ज़मींदारों का शरणस्थल बन गया था जो कंपनी के राजस्व आदेशों से बचना चाहते थे।
    कंपनी अधिकारियों के बयान
    • बिहार के राजस्व कलेक्टर थॉमस रम्बोल्ड ने बताया कि पलामू में शरण पाने वाले राजस्व डिफाल्टरों के कारण वसूली में कठिनाई हो रही थी।
    • उन्होंने पलामू किले को अधीन करने की आवश्यकता पर बल दिया ताकि राजस्व वसूली और सीमांत नियंत्रण सुनिश्चित हो सके।
    मराठा संकट
    • पलामू की स्थिति इसे नागपुर से आने वाले मराठों के आक्रमणों को रोकने के लिए रणनीतिक बनाती थी।
    • मराठा स्वयं 1766 में ही पलामू पर अधिकार करना चाहते थे।

    खंड B: पलामू में राजनीतिक अराजकता और ब्रिटिश हस्तक्षेप

    चेरो के अंदरूनी संघर्ष
    • पलामू के शासक जय कृष्ण राय आंतरिक विवादों में उलझे हुए थे, जिसमें उनके सहयोगी साइनाथ सिंह की हत्या हो गई।
    • इसके बाद जयनाथ सिंह और चित्रजीत राय के नेतृत्व में विद्रोह हुआ।
    • 1770 में जय कृष्ण राय की हत्या हुई और चित्रजीत राय राजा बने; जयनाथ सिंह दीवान बने।
    ब्रिटिश प्रतिक्रिया और गोपाल राय का दावा
    • जय कृष्ण राय के वंशज गोपाल राय ने पटना से ब्रिटिश सहायता मांगी।
    • शुरू में ब्रिटिश हस्तक्षेप से हिचक रहे थे, परंतु बाद में पलामू किले पर अधिकार के अवसर को देखकर तैयार हो गए।
    • पटना के इतिहासकार और मध्यस्थ गुलाम हुसैन खान के माध्यम से जयनाथ सिंह से वार्ता शुरू हुई।
    ब्रिटिश शर्तें और सैन्य तैयारी
    • प्रस्ताव दिए गए:
      • चित्रजीत राय को ब्रिटिश समर्थन के साथ राजा मान्यता।
      • जयनाथ सिंह को ₹8,000 वार्षिक मूल्य की ज़मीन, बशर्ते वह भविष्य के दावे छोड़ें।
      • गोपाल राय को जागीर मिलना लेकिन भविष्य में राजत्व का दावा नहीं होगा।
    • कप्तान कैमैक को सैन्य तैयारी का आदेश दिया गया।
    • दस कंपनी सिपाही भेजे गए और किला जीतने की योजना बनी।
    अंतिम निर्णय की समयसीमा
    • जयनाथ सिंह ने अन्य प्रमुखों से परामर्श के लिए 10 दिन की मोहलत मांगी।
    • ब्रिटिश को संदेह हुआ कि वह मराठों से मेलजोल कर रहा है, इसलिए 21 जनवरी 1771 की अंतिम तिथि तय की गई।
    • पालन न होने पर कैमैक को किला बलपूर्वक लेने और गोपाल राय को समर्थन देने का आदेश मिला।
    • नियुक्ति और आदेश: कैमैक को विशेष रूप से 1771 में पलामू भेजा गया ताकि प्रतिरोध को कुचल कर ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभाव स्थापित किया जा सके।
    • प्रारंभिक प्रतिरोध: जयनाथ सिंह और सोनभद्र के एक खरवार प्रमुख ने संगठित प्रतिरोध किया।
    • रणनीति: प्रत्यक्ष हमले के साथ-साथ “फूट डालो और राज करो” की नीति अपनाई गई; कई परगनों को अधीन कर लिया गया।

    2. जयनाथ सिंह की भूमिका और अंत

    • चेरो विरासत: जयनाथ सिंह का प्रतिरोध चेरो शक्ति का अंतिम प्रयास माना जाता है।
    • पराजय और भागना: हार के बाद वह भाग गया, जिससे चेरो शासन का प्रभाव समाप्त हो गया।

    3. कंपनी की नीति और रणनीति

    • राजस्व और व्यवस्था: उद्देश्य केवल विजय नहीं, बल्कि राजस्व वसूली और राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करना था।
    • स्थानीय राजनीति का उपयोग: आपसी संघर्ष का लाभ उठाकर कंपनी ने अधीनता स्थापित की।

    4. जागीरदारों और किलों का उपयोग

    • किलों पर नियंत्रण: पलामू (और संभवतः सतबरवा आदि) किलों का अधिग्रहण निर्णायक था।
    • निष्ठावान प्रमुखों की नियुक्ति: जैसे रंका के भाईया जगतपाल सिंह को समर्थन देकर अप्रत्यक्ष शासन सुनिश्चित किया गया।

    5. दीर्घकालिक प्रभाव

    • चेरो शासन का अंत: इस अभियान ने चेरो शासन के प्रभाव को समाप्त कर दिया।
    • नई सत्ता संरचना: अब सत्ता ब्रिटिश समर्थन से स्थापित लोगों के हाथ में थी, पारंपरिक वंशानुक्रम से नहीं।

    पलामू और आस-पास का ब्रिटिश अधिग्रहण (1771)

    प्रारंभिक संवाद और प्रतिरोध
    • 2–4 फरवरी 1771: जयनाथ सिंह के पत्र कैमैक को प्राप्त हुए परंतु उन्हें निरर्थक माना गया।
    • जयनाथ सिंह की प्रतिक्रिया: उसने बुधन सिंह के दूत की हत्या कर दी और धमकीभरा पत्र कुंडा के शासक ध्रिज नारायण को भेजा।
    • 10 फरवरी 1771: उसने संधि प्रस्ताव रखा – जीवन, संपत्ति और किले की सुरक्षा की शर्त पर।
    कैमैक का सैन्य निर्णय
    • कैमैक ने प्रस्ताव को असत्य माना और किले पर बलपूर्वक कब्जा करने का निर्णय लिया।
    • सहायक ज़मींदारों को अपने साथ बुलाकर जयनाथ सिंह को सहायता से वंचित किया।
    पटना परिषद से आदेश
    • 19 फरवरी 1771: पलामू किले पर अधिकार और गोपाल राय की पुष्टि का आदेश आया।
    • कैमैक से कहा गया कि कब्जा होने के बाद भी जयनाथ सिंह को उचित शर्तें दी जाएँ।
    किले पर अधिकार
    • 12 मार्च 1771: कैमैक जयनगर से रवाना हुआ।
    • 19 मार्च 1771: सेनाएँ किले के पास पहुँचीं, नया किला कब्जे में आया।
    • 20 मार्च की रात: पुराने किले में breach किया गया।
    • 21 मार्च की सुबह: हमला हुआ, रक्षक भागे या मारे गए।
    • 21 मार्च दोपहर: किला आत्मसमर्पण कर गया, कंपनी का झंडा फहराया गया।

    कब्जे के बाद

    • जयनाथ सिंह और चित्रजीत राय रामगढ़ भागे
    • रामगढ़ के मुकुंद सिंह ने उनका समर्थन जारी रखा
    • कैमैक ने स्थानीय तालुकेदारों को हटाकर प्रशासनिक व्यवस्था शुरू की

    व्यवस्था और शासन

    • आदेश:
      • तोपें और भारी हथियार औरंगाबाद भेजे जाएँ।
      • किले में सीमित सेना रखी जाए।
      • क्षेत्र का पुनर्वास और व्यवस्था की जाए।
    • 30 मार्च 1771: गोपाल राय को आधिकारिक रूप से शासक मान्यता दी गई।

    पुनः विद्रोह

    • जून 1771: जयनाथ सिंह फिर लौटा और अशांति फैलाई।
    • 21 जून 1771: पुनः ब्रिटिश सेना द्वारा खदेड़ा गया।
    • सुरगुजा के पास चौकियाँ बनाईं गईं ताकि और आक्रमण न हो सकें।

    अंतिम समझौता

    • 1 जुलाई 1771: घाटवालों ने समर्पण किया; गोपाल राय शासक घोषित हुए।
    • 16 जुलाई 1771: तीन वर्षों के लिए ₹12,000 वार्षिक राजस्व तय हुआ।

    रांची क्षेत्र में ब्रिटिश प्रवेश

    द्रिप नाथ शाह के संघर्ष और समर्पण
    • 1770 में कोल्हान पर आक्रमण असफल रहा; लरका कोलों ने घोर प्रतिरोध किया।
    • नागवंशी क्षेत्र मराठा आक्रमण और रामगढ़ की शत्रुता से पीड़ित था।
    कंपनी से गठबंधन
    • फरवरी 1771: द्रिप नाथ शाह ने कैमैक को सहायता भेजी।
    • विजय के बाद, वह सतबरवा में कैमैक से मिले और संधि की:
      • ₹12,000 वार्षिक कर देना स्वीकार किया।
      • मराठों के विरुद्ध ब्रिटिश सहायता का वादा किया।
      • प्रतीकात्मक रूप से पगड़ी और टोपी का आदान-प्रदान किया गया (जिसमें हीरे छिपे होने की अफ़वाह थी)।
    औपचारिक समझौता
    • अगस्त 1771: द्रिप नाथ शाह को सीधे कंपनी को कर देने की अनुमति मिली।
    • पट्टा 3 वर्षों के लिए (1771–1773) जारी हुआ; कुल कर ₹36,001 तय हुआ।
    रणनीतिक महत्व
    • कैमैक ने इस संधि को मराठा मार्ग को बंद करने और दक्षिण बिहार-बंगाल पर नियंत्रण के लिए आवश्यक माना।