1. उपनिवेशवादी विस्तार और प्रशासनिक परिवर्तन
ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रभाव
1800 के दशक की शुरुआत तक, बक्सर की लड़ाई (1764) के बाद क्षेत्रीय शक्तियों के पतन और कंपनी के शासन के विस्तार के चलते पलामू और रांची अप्रत्यक्ष ब्रिटिश नियंत्रण में आ गए थे।
ज़मींदारी प्रणाली की शुरुआत
स्थायी बंदोबस्त (1793) और ज़मींदारी प्रणाली ने पारंपरिक आदिवासी भूमि अधिकारों को बाधित किया। आदिवासी भूमि गैर-आदिवासी ज़मींदारों (दिकुओं) को सौंप दी गई।
राजस्व दबाव और कानूनी परिवर्तन
ब्रिटिशों के राजस्व केंद्रित दृष्टिकोण ने नए कानूनी और प्रशासनिक ढांचे थोपे, जो प्रायः साहूकारों और ज़मींदारों के पक्ष में थे, आदिवासियों के नहीं।
2. आदिवासी समुदाय और बढ़ता असंतोष
प्रमुख जनजातियाँ
- कोल (ब्रिटिशों द्वारा विभिन्न जनजातियों के लिए प्रयुक्त छत्र शब्द)
- मुंडा
- उरांव
- हो
मूल शिकायतें
- भूमि का नुकसान: ऋण, दिकुओं द्वारा ज़मीन हड़पने और कानूनी धोखाधड़ी के कारण आदिवासियों की पैतृक भूमि छीनी गई।
- शोषण: आदिवासी प्रायः बंधुआ मज़दूर या भूमिहीन कृषक बना दिए गए।
- आदिवासी स्वायत्तता का ह्रास: पारंपरिक आदिवासी नेता (मानकी और मुंडा) राजस्व अधिकारियों और अदालतों द्वारा हटा दिए गए।
3. कोल विद्रोह (1831–1832)
विद्रोह का उद्गम और प्रसार
चोटानागपुर पठार (विशेषतः रांची, पलामू, सिंहभूम और हजारीबाग) में यह विद्रोह फूटा। यह ज़मींदारों, साहूकारों और औपनिवेशिक अधिकारियों के प्रति बढ़ती नाराज़गी से प्रेरित था।
विद्रोह का स्वरूप
- संगठित आदिवासी दलों ने ज़मींदारों, साहूकारों और औपनिवेशिक प्रतिष्ठानों पर हमले किए।
- यह विद्रोह औपनिवेशिक शासन के विरोध और सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की रक्षा दोनों के रूप में उभरा।
ब्रिटिश प्रतिक्रिया
ब्रिटिश सेना ने 1832 की शुरुआत तक विद्रोह को क्रूरता से दबा दिया। उन्होंने आदिवासी असंतोष की गहराई और उनकी संगठन क्षमता को कम करके आँका।
4. परिणाम और विरासत
दमन और नियंत्रण
यद्यपि विद्रोह को दबा दिया गया, लेकिन इसने ब्रिटिशों को आदिवासी क्षेत्रों की संवेदनशीलता का एहसास करा दिया।
नीतिगत परिवर्तन
ब्रिटिशों ने आदिवासी क्षेत्रों में अधिक सतर्क रुख अपनाया, जो अंततः भारत शासन अधिनियम (1935) के “अर्जित एवं आंशिक रूप से अर्जित क्षेत्र” प्रावधान में परिलक्षित हुआ।
ऐतिहासिक महत्व
यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध पहला बड़ा आदिवासी जनविद्रोह था, जिसने आगे चलकर संथाल विद्रोह (1855–56) और बिरसा मुंडा का उलगुलान (1899–1900) जैसे आंदोलनों की नींव रखी।
📌 कोल विद्रोह से पहले के प्रमुख विषय और संदर्भ
I. तामर और चोटानागपुर में असंतोष के मूल कारण
- ब्रिटिश सत्ता के प्रति असंतोष: इतकी और तामर के ज़मींदारों जैसे कई स्थानीय प्रमुख ब्रिटिश नागरिक और सैनिक अधिकार को पूरी तरह स्वीकार नहीं करते थे।
- भौगोलिक लाभ: पहाड़ी और वनाच्छादित इलाकों ने आदिवासियों और विद्रोहियों को प्राकृतिक सुरक्षा प्रदान की।
- संचार और विश्वास की कमी: सरकार और आदिवासियों के बीच संवादहीनता थी; कानूनी व्यवस्था अप्राप्य थी और प्रतिकार ही एकमात्र उपाय बन गया।
- स्थानीय शासकों का दमन: गोविंद शाही जैसे शासक अत्याचारी माने जाते थे, जिससे विद्रोह की भावना को बढ़ावा मिला।
II. प्रमुख व्यक्ति और घटनाएँ
- गोविंद शाही (तामर प्रमुख): अत्याचारी कहे जाते थे, उनके व्यवहार ने स्थानीय विद्रोहों को प्रज्वलित किया।
- मेजर रफसेज: ब्रिटिश सैन्य अधिकारी, रणनीतिक रूप से सतर्क लेकिन अंततः दमनकारी।
- कॉल्विन (जंगल महल के मजिस्ट्रेट): विद्रोह को शांतिपूर्वक सुलझाने के पक्षधर, मध्यम और मेल-मिलाप की नीति पर बल।
- कुंता मुंडा और रुदन: करिश्माई आदिवासी नेता, जो अंततः पकड़े गए लेकिन प्रतिरोध के प्रतीक बन गए।
III. तामर की अशांति की समयरेखा (1819–1821)
- अगस्त 1819: विद्रोह शुरू हुआ; सितंबर तक तीव्र हो गया।
- दिसंबर 1819 – जनवरी 1820: विद्रोही पुराना नगर में जम गए; बाद में वनों की ओर खदेड़े गए।
- जुलाई 1820: रुदन गिरफ्तार।
- प्रारंभिक 1821: कुंता के नेतृत्व में नए विद्रोह की आशंका, ब्रिटिश सतर्कता से विफल।
- मध्य 1821: तामर और चोटानागपुर में सामान्य शांति स्थापित।
IV. चोटानागपुर में विस्तार (1821)
- सिंहभूम के लरका कोलों से प्रेरित होकर विद्रोह चोटानागपुर में फैला।
- राधानाथ पांडे की वापसी जैसे आंतरिक राजनीतिक तनावों से यह और भड़का।
- मई 1821 तक ब्रिटिशों ने इसे पुनः दबा दिया।
🧩 व्यापक ऐतिहासिक महत्व
- कोल विद्रोह (1831) कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि यह दशकों की पीड़ा, भूमि विवाद, दमनकारी शासन और आदिवासी संस्कृति की उपेक्षा का परिणाम था।
- तामर का अनुभव एक आदिवासी विद्रोह के प्रारूप को दर्शाता है — स्थानीय नेता, भू-आधारित शिकायतें, भौगोलिक लाभ और बाहरी शासकों के प्रति अविश्वास।
- ब्रिटिशों ने कुछ हद तक मेल-मिलाप की कोशिश की, लेकिन अंततः सैन्य शक्ति और सहयोगी ज़मींदारों (जैसे गोविंद शाही) पर भरोसा किया।
V. पलामू और रांची: कोल विद्रोह से पूर्व की स्थिति
I. पारंपरिक सत्ता का पतन
- नागवंशी शासकों का प्रभाव:
- जगन्नाथ शाह देव अब भी 1827 में सम्मानित थे।
- उत्तराधिकार की मान्यता, उपाधि प्रदान करने की शक्ति रखते थे।
- ब्रिटिशों द्वारा अपमान:
- ब्रिटिश अधिकारी नागवंशी अधिकार को असहनीय मानते थे।
- जगन्नाथ शाह देव ब्रिटिश नीति से क्षुब्ध थे और अपने लोगों के शोषण से परिचित थे।
II. आदिवासी जनसंख्या का उत्पीड़न
- आर्थिक शोषण:
- अत्यधिक कर, अवैध वसूली, बंधुआ श्रम और मृत्यु जैसे निजी कारणों पर जुर्माना।
- जे. थॉमसन ने बताया कि आदिवासी मुफ्त श्रम देने को मजबूर थे।
- घरेलू स्वायत्तता का उल्लंघन:
- घरेलू शराब पर हुंडी कर (1826 में समाप्त हुआ) ने घरेलू गोपनीयता को भंग किया।
III. न्याय व्यवस्था और प्रशासन का पतन
- भूमि से बेदखली:
- ब्रिटिश न्यायालय आदिवासियों के लिए पराई और दमनकारी थीं।
- आदिवासियों को विद्रोही मान लिया गया, न कि अपने अधिकारों का रक्षक।
- प्रशासनिक疎 alienation:
- 1817 के बाद बंगाल-बिहार से लाए गए अधिकारी नियुक्त हुए, जो आदिवासी जीवन से अपरिचित थे।
- भ्रष्टाचार और अवैध वसूली:
- अधीनस्थ अधिकारी गोनालिगरी, सलामी, अफीम जुर्माना आदि की वसूली करते थे।
IV. व्यापक असंतोष और विद्रोह की तैयारी
- केवल आदिवासी नहीं:
- बड़े ज़मींदार भी अल्पकालिक बंदोबस्त और कानूनी पेचिदगियों से असंतुष्ट थे।
- कुलीन वर्ग का अपमान:
- उच्चवर्गीय लोग भी आपराधिक न्याय के अंतर्गत लाए गए, जिससे सांस्कृतिक अपमान महसूस हुआ।
- विद्रोह की दिशा में अग्रसर:
- सभी वर्गों में साझा पीड़ा की भावना बनी; आदिवासी विशेष रूप से अपनी स्वायत्तता पुनः प्राप्त करने को प्रेरित थे।
VI. ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और विद्रोह की ओर अंतिम धक्का
- ऐतिहासिक संप्रभुता:
- नागवंशी और चेरो शासकों ने मुगल आधिपत्य को खारिज किया और स्वतंत्र शासन बनाए रखा।
- कंपनी अधिग्रहण:
- 1760–1770 के दशक में पलामू और रांची पर नियंत्रण पाने की ब्रिटिश कोशिशें शुरू हुईं।
- देशी सत्ता का पतन:
- 1813 तक चेरो वंश समाप्त हुआ और 1817 में नागवंशी केवल ज़मींदार बनकर रह गए।
- पूर्व सहयोगियों का प्रतिरोध:
- जयनाथ सिंह, सुगंध राय और गजराज राय जैसे नेता ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध खड़े हुए।
विद्रोह के बीज
ब्रिटिशों ने आदिवासी संस्कृति, भूमि अधिकार और न्यायिक प्रशासन को न समझा और न ही सम्मान दिया।
1775–1830 के बीच हुए लगातार विद्रोहों ने कोल विद्रोह की भूमिका तैयार की।
यह विद्रोह एक साझा प्रतिरोध था —
- आदिवासियों का,
- पूर्व शासक परिवारों का,
- और वंचित कुलीनों का।