Tag: झारखंड प्रतियोगिता परीक्षा मॉडल प्रश्न पत्र

  • “झारखंड के स्वतंत्रता सेनानी”

    1. तिलका माँझी (1750–1785)

    जन्म स्थान: तिलकपुर, भागलपुर (वर्तमान बिहार)
    जाति: संताल
    पिता का नाम: सुंदरा मुर्मू

    मुख्य योगदान:

    • भारत के पहले आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी माने जाते हैं।
    • 1781 में संताल विद्रोह का नेतृत्व किया।
    • ब्रिटिश अधिकारी ऑगस्टस क्लीवलैंड को तीर से मार गिराया (13 जनवरी 1784)।
    • उन्होंने गुरिल्ला युद्ध नीति अपनाकर ब्रिटिशों को छकाया।

    बलिदान:

    • पहाड़िया सरदार जौराह की गद्दारी से गिरफ्तार हुए।
    • मई 1785 में चार घोड़ों से बाँधकर घसीटे गए और भागलपुर के एक बरगद के पेड़ से फाँसी दी गई।

    2. बुधु भगत (1792–1832)

    जन्म स्थान: सिलागाई गाँव, लोहरदगा (झारखंड)
    जाति: उराँव
    पिता का नाम: हेरू भगत

    मुख्य योगदान:

    • 1831–1832 में ब्रिटिश और जमींदारों के खिलाफ जन विद्रोह का नेतृत्व किया।
    • गाँव-गाँव में जनजागरण फैलाया।
    • गुरिल्ला युद्ध का कुशल प्रयोग किया।

    बलिदान:

    • 1832 में अंग्रेजों ने बुधु भगत के घर को घेर लिया।
    • उन्होंने और उनके दो बेटों ने साहसपूर्वक युद्ध किया, पर अंततः शहीद हो गए।

    3. पाण्डेय गणपत राय (1809–1858)

    जन्म स्थान: चतरा, झारखंड
    पिता का नाम: राजा जुगल किशोर सिंह
    पद: नागवंशी राजा व चतरा के दीवान

    मुख्य योगदान:

    • 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई।
    • अंग्रेजों से विरुद्ध राजाओं और जनता को संगठित किया।
    • तांत्या टोपे, नाना साहिब और कुंवर सिंह से सहयोग स्थापित किया।

    बलिदान:

    • अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किए गए।
    • 21 अप्रैल 1858 को चतरा में खुले मैदान में फाँसी दी गई।
    • उनके अंतिम शब्द थे: “भारत माता की जय!”

    4. सिद्धू-कान्हू मुर्मू (1815–1855)

    जन्म स्थान: भोगनाडीह गाँव, साहिबगंज (झारखंड)
    जाति: संताल
    पिता का नाम: मरांग भगत

    मुख्य योगदान:

    • 30 जून 1855 को 10,000 से अधिक संतालों के साथ “संताल विद्रोह” (हुल आंदोलन) का नेतृत्व किया।
    • अंग्रेजों, साहूकारों और महाजनों के अत्याचार के विरुद्ध “अबुआ राज एते जनावर नाय” (अपना राज लाएँगे, जानवरों का नहीं) का नारा दिया।
    • विद्रोह ने साहिबगंज, दुमका, पाकुड़, गोड्डा तक प्रभाव फैलाया।

    बलिदान:

    • 1855 में अंग्रेजी सेना ने धोखे से उन्हें घेर कर मार दिया।

    5. ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव (1817–1858)

    जन्म स्थान: बड़लाटोली, रांची (झारखंड)
    पिता का नाम: ठाकुर चैतन्य शाह
    पद: रांची के नागवंशी राजा

    मुख्य योगदान:

    • 1857 की क्रांति में सक्रिय नेता थे।
    • अंग्रेजों के खिलाफ मुक्ति सेनाओं को संगठित किया।
    • पाण्डेय गणपत राय, नंदराज और मुरलीधर से गठबंधन किया।
    • रांची, लोहरदगा, चतरा में ब्रिटिश प्रशासन को उखाड़ फेंका।

    बलिदान:

    • 16 अप्रैल 1858 को रांची के जेल मैदान में फाँसी दी गई।

    6. शेख भिखारी

    • टिकैत उमराव सिंह के दीवान और सहयोगी।
    • 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी।
    • अंग्रेजों के विरुद्ध रणनीतिक सहयोग में प्रमुख भूमिका।
    • स्वतंत्रता संग्राम के बाद सम्पत्ति जब्त और परिवार को पलायन करना पड़ा।

    7. बिरसा मुण्डा (1875 – 1900)

    जन्म: 15 नवम्बर 1875, उलिहातू, खूंटी
    प्रसिद्ध नाम: धरती आबा

    शिक्षा व धर्मांतरण:

    • गरीबी के कारण शुरुआती जीवन संघर्षपूर्ण।
    • 7 मई 1886 को ईसाई धर्म में धर्मांतरण (चाईबासा लूथरन मिशन)।
    • बाद में ईसाई मिशनरियों की नीतियों से असंतुष्ट होकर हिन्दू और आदिवासी मूल्यों की ओर लौटे।

    आंदोलन:

    • लक्ष्य: पारंपरिक जनजातीय जीवन और संस्कृति की पुनर्स्थापना।
    • ईसाई मिशनरियों व अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की शुरुआत।
    • 1895 में गिरफ्तारी व दो वर्ष की सश्रम कारावास।
    • जेल से रिहा होने के बाद फिर आंदोलन को संगठित किया।
    • 1900 में गिरफ्तार; राँची जेल में 9 जून 1900 को मृत्यु।

    8. टिकैत उमराव सिंह

    • जन्म: खटंगा, ओरमांझी (कुछ मतों में गंगा पातर)
    • कुशल घुड़सवार व तलवारबाज।
    • 1857 की क्रांति में शेख भिखारी के साथ मिलकर विद्रोह का नेतृत्व।
    • चुटुपालू घाटी मार्ग अवरुद्ध कर अंग्रेजों को रोका।
    • 8 जनवरी 1858 को शेख भिखारी के साथ फाँसी दी गई।
    • 12 गाँवों की ज़मींदारी जब्त की गई।

    9. नीलांबर-पीतांबर (पलामू के वीर भाई)

    • पलामू के चेरो-खरवार समुदाय से।
    • 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया।
    • चैनपुर, साहपुर, लेस्लीगंज पर आक्रमण।
    • बाद में मनिका के जंगल में शरण ली और पुनः विद्रोह छेड़ा।
    • कर्नल डाल्टन ने भोज के बहाने गिरफ्तार कर फाँसी दी।
    • उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गई।

    10. तेलंगा खड़िया (1806 – 1880)

    जन्म: सिसई मुर्गे गाँव
    पिता: दुइया खड़िया (छोटानागपुर महाराज के भंडारी)

    संघर्ष और बलिदान:

    • अनपढ़ लेकिन कुशल संगठक और योद्धा।
    • कोल विद्रोह (1831–32) से प्रेरणा लेकर अंग्रेजों के खिलाफ छापामार युद्ध शुरू किया।
    • पूरे खड़िया क्षेत्र को गोलबंद किया।
    • अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने कई प्रयास किए लेकिन असफल रहे।
    • 23 अप्रैल 1880 को सिसई में एक देशद्रोही द्वारा गोली मारकर हत्या।

    11. सिनगी दई (रोहतास गढ़ की वीरांगना)

    • उरांव समुदाय की राजकुमारी।
    • नारी सेना गठित कर मुगल आक्रमण को तीन बार रोका।
    • सहेली कैली दई के साथ युद्ध में मोर्चा संभाला।
    • वीरता की प्रतीक: उरांव महिलाएं उनकी याद में तीन रेखाएं गुदवाती हैं।

    12. गया मुण्डा (उलगुलान सेनानी, एटकेडीह)

    • गया मुण्डा ने अपने पूरे परिवार के साथ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया।
    • 5 जनवरी 1900 को खूँटी थाना का कांस्टेबल उन्हें पकड़ने एटकेडीह पहुँचा, जहाँ उलगुलान की बैठक चल रही थी।
    • गया मुण्डा के बेटे सांभर मुण्डा ने सिपाही पर तीर चला दिया।
    • 6 जनवरी 1900 को उपायुक्त स्ट्रीटफील्ड ने एटकेडीह में गया मुण्डा के घर को घेर लिया।
    • महिलाओं ने सिपाही पर लाठी से वार कर दिया।
    • गया मुण्डा का जवाब: “यह घर मेरा है, उपायुक्त को घुसने का अधिकार नहीं है। घुसे तो मार डालेंगे!”
    • उपायुक्त ने घर में आग लगवा दी, जिससे पूरा परिवार बाहर निकला।
    • दंड:
      • बेटे को फाँसी
      • बड़े बेटे डोका मुण्डा को आजीवन कारावास
      • पत्नी माकी दई को 2 साल की कैद
      • बहुएं और बेटियाँ: 3 महीने की कैद
      • बेटे जयमसीह को देश निकाला
      • कुल 348 मुण्डाओं पर मुकदमा चला

    बिंदराई मानकी और सुइया मुण्डा (कोल विद्रोह, 1832)

    • सिंहभूम, पलामू और तोरपा क्षेत्र में विद्रोह का नेतृत्व किया।
    • प्रमुख सहयोगी: सागर मानकी, सुग्गा मानकी, मोहन मानकी आदि।
    • अंग्रेजों ने विद्रोहियों को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया।
    • 19 अप्रैल 1832: बिंदराई और सुइया मुण्डा ने आत्मसमर्पण किया।
    • अंग्रेजों को उनके आत्मसमर्पण के बदले सुरक्षा और शांति बनाए रखने का आश्वासन लेना पड़ा।

    पोटो सरदार (कोल्हान विद्रोह, 1837)

    • ‘हो’ आदिवासी नेता जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी।
    • अंग्रेजों के अत्याचार और ‘विल्किन्सन रूल’ के विरोध में विद्रोह।
    • विद्रोह की योजना: ग्राम प्रमुखों को तीर भेजकर आमंत्रण।
    • 17 नवम्बर 1837: कैप्टन आर्मस्ट्रांग की सेना ने हमला किया।
    • 8 दिसम्बर 1837: पोटो सरदार गिरफ्तार।
    • 1 जनवरी 1838: पोटो, नारो और बड़ाय को फाँसी दी गई।
    • 2 जनवरी 1838: मोड़ो और पंडुआ को भी फाँसी।

    रूदन मुण्डा और कोन्ता मुण्डा (तमाड़ विद्रोह, 1819-1821)

    • 1819 में अंग्रेजों के खिलाफ तमाड़ क्षेत्र में विद्रोह।
    • प्रमुख नेता: दौलत राय मुण्डा, शंकर मानकी, चंदन सिंह, भद्रा मुण्डा आदि।
    • 31 अगस्त 1819: पिटुचाड़ा में हमला।
    • रूदन मुण्डा को पकड़ने के लिए इनाम घोषित हुआ और वह पकड़े जाने के बाद जेल में मारे गए।
    • 1821: कोन्ता मुण्डा ने सिंहभूम के लड़ाकों को एकत्र किया।
    • राजा गोविन्द शाही ने उस पर ₹200 का इनाम रखा।
    • गिरफ्तारी के बाद जेल में मौत, विद्रोह का अंत हुआ।

    फेटल सिंह खरवार (जनजातीय नेता, गढ़वा–पलामू)

    • जन्म: 7 मई 1885, बहाहारा गाँव, गढ़वा।
    • पिता: लगन सिंह, पंचायत चट्टा के मुखिया।
    • पढ़ाई नहीं कर सके पर जल-जंगल-जमीन की गहरी समझ।
    • गाँधीजी के प्रभाव में आए और वन अधिकारों की लड़ाई लड़ी।
    • 1958: वन विभाग के कब्जे के खिलाफ संघर्ष उग्र हुआ।
    • 12 जनवरी 1958: पुलिस से भिड़ंत, एक समर्थक कुम्भकरण की मृत्यु।
    • गिरफ्तारी के बाद जेल में स्वास्थ्य बिगड़ा, बाद में अच्छे आचरण के कारण रिहा हुए।
    • 31 दिसम्बर 1975: उनका निधन। समाधि आज भी बहाहारा गाँव में स्थित है।

  • झारखंड में पारंपरिक जनजातीय न्याय और शासकीय व्यवस्था

    जनजातीय शासन व्यवस्था

    मुण्डाओं की स्वशासन व्यवस्था

    • भाषा: मुण्डारी (आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार)
    • मुख्य निवास स्थान: राँची, सिंहभूम, हजारीबाग, पलामू, धनबाद
    • जनसंख्या: लगभग 12.29 लाख
    • प्रमुख उद्देश्य: सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आपराधिक मामलों का निपटारा।
    पदाधिकारीभूमिका
    मुण्डागाँव का प्रधान; प्रशासन, न्यायिक कार्यों का नेतृत्व; कर वसूली।
    पड़हा राजा12-20 गाँवों के समूह (पड़हा) का प्रधान; जटिल विवादों का निपटारा। (मानेदय ₹1000/-)
    राजा22 पड़हा का प्रधान; उच्च स्तर का निर्णयकर्ता।
    ठाकुरपड़हा राजा का सहायक।
    दीवानराजा का मंत्री; आदेशों का क्रियान्वयन। (गढ़ दीवान और राज दीवान)
    बरकंदाज (सिपाही)नोटिस वितरण।
    दारोगासभा में नियंत्रण और सुरक्षा।
    पाण्डेयकागजातों का संरक्षण व नोटिस जारी करना।
    लाल (बड़लाल, मझलाल, छोटेलाल)सभा में वकील जैसे बहसकर्ता।
    पाहनमुण्डा का सहायक; धार्मिक कार्यों का निर्वहन।
    पुजारी पाहनपर्व-त्योहारों में पूजा कार्य।
    महतोसूचना प्रसारक; मुण्डा व पाहन का सहायक।
    पुरोहितसमाज में शुद्धिकरण कार्य।
    घटवारदंड सामग्री का वितरण।
    चवार डोलाइतसभा में हाथ-पैर धुलाने का कार्य।
    पान खवाससभा में चूना-तम्बाकू वितरण।

    विवाद निपटारा प्रक्रिया

    प्रथम चरण:

    • पीड़ित व्यक्ति मुण्डा को सूचित करता है।
    • महतो सूचना फैलाता है।
    • गाँव सभा में दोनों पक्षों की सुनवाई।
    • निर्णय: आर्थिक दंड या सामाजिक बहिष्कार।

    द्वितीय चरण:

    • गाँव स्तर पर मामला न सुलझने पर पड़हा सभा बुलाई जाती है।
    • दीवान और बरकंदाज के माध्यम से सूचना प्रसारित।

    तृतीय चरण:

    • पड़हा सभा में भी न सुलझने पर 22 पड़हाराजा की महासभा में निर्णय।
    • निर्णय अनिवार्य रूप से मान्य होता है।

    विभिन्न क्षेत्रों में पारंपरिक व्यवस्था का योगदान

    • आपराधिक मामले: आर्थिक दंड; मानवीय मूल्यों पर आधारित निर्णय।
    • यौन अत्याचार: कड़ी सजा; विवाह की स्थिति में लड़की की जिम्मेदारी।
    • विकास कार्य: श्रमदान द्वारा सड़क, कुएँ, नहर का निर्माण।
    • भूमि विवाद: मुण्डा द्वारा निष्पक्ष बँटवारा।
    • धार्मिक कार्य: पाहन द्वारा तिथि निर्धारण।
    • महिलाओं के अधिकार: भरण-पोषण हेतु भूमि पर सीमित अधिकार।
    • पद का वंशानुगत अधिकार: योग्य उत्तराधिकारी को ही पद सौंपा जाता है।

    अखड़ा और सामूहिक निर्णय

    • स्थान: गाँव के मध्य, पेड़ के नीचे (यदि उपलब्ध हो)।
    • कार्य: सामूहिक विचार-विमर्श, नैतिकता आधारित निर्णय, त्वरित और न्यूनतम खर्च में न्याय।

    पड़हा पंचायत शासन व्यवस्था (उराँव जाति)

    गाँव पंचायत

    • प्रमुख पदाधिकारी: महतो (प्रधान), पाहन (पुजारी), भंडारी (संदेशवाहक)।
    • कार्य: विवाद निपटारा, आपदा प्रबंधन, त्योहार आयोजन।

    पड़हा पंचायत

    • समूह: 9-12 गाँव।
    • प्रमुख: पड़हा राजा।
    • अन्य पदाधिकारी: दीवान, मंत्री, कोटवार, पैनभरा।
    • कार्य: अपीलीय न्यायालय की तरह कार्य; सामाजिक नियमों का पालन कराना।

    विशेष:
    राँची जिले का “मुड़मा मेला” पड़हा पंचायत का प्रभावशाली उदाहरण है।

    महतो और पड़हाराजा के बीच संबंध

    • महतो, पड़हाराजा के अधीनस्थ कार्य करता है।
    • किसी मामले में महतो के आग्रह के बिना पड़हाराजा हस्तक्षेप नहीं करता।

    (ग) मानकी-मुण्डा स्वशासन व्यवस्था

    ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

    • यह व्यवस्था मुख्यतः पश्चिमी व पूर्वी सिंहभूम और सरायकेला-खरसांवा जिलों के ग्रामों में प्रचलित है।
    • ब्रिटिश सरकार के आगमन से पूर्व पोड़ाहाट (सिंहभूम) के राजा द्वारा शासन चलता था।
    • ‘हो’ समुदाय राजा के प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं थे।

    ब्रिटिश शासन के बाद परिवर्तन

    • 1821 में ब्रिटिश सरकार ने सिंहभूम का दक्षिणी भाग कब्जे में लिया।
    • इस क्षेत्र को कोल्हान गवर्नमेंट स्टेट नाम दिया गया और कैप्टन थॉमस विल्किंसन को 1837 में प्रशासन के लिए नियुक्त किया गया।
    • प्रशासन हेतु विल्किंसन रूल बनाया गया, जिसमें:
      • दीवानी मामलों की सुनवाई मुण्डा करते थे।
      • आपराधिक मामलों की सुनवाई मानकी करते थे।

    कोल्हान क्षेत्र में प्रशासन के उद्देश्य

    1. स्थानीय सरकार को सुरक्षित रखना।
    2. जनता से सरकार का सीधा संबंध बनाए रखना।
    3. विवादों का निपटारा ग्राम पंचायतों के माध्यम से करना।
    4. क्षेत्र में बाहरी व्यक्तियों का प्रवेश रोकना।

    मानकी के अधिकार और कर्तव्य

    • ओहदा मारूसी (वंशानुगत) होता है।
    • पीड़ क्षेत्र का प्रमुख और जिम्मेदार अधिकारी।
    • राजस्व वसूली के लिए मुण्डा के साथ उत्तरदायी।
    • वसूली पर 10% कमीशन पाने का अधिकार।
    • पुलिस पदाधिकारी के रूप में कार्य करना।
    • अपराधियों को गिरफ्तार कर सुपुर्द करना।
    • सरकारी आदेशों के अनुसार काम करना।
    • छोटे विवादों का निपटारा और रिपोर्टिंग उपायुक्त को करना।

    मुण्डा के अधिकार और कर्तव्य

    • ग्राम प्रधान और ग्राम की स्वायत्तता का प्रतिनिधित्व करता है।
    • परती जमीन का बंदोबस्त करने का अधिकार।
    • बाहरी व्यक्ति के बसने की सूचना सरकार को देना।
    • गाँव के सार्वजनिक संसाधनों की देखरेख करना।
    • ग्राम का पुलिस पदाधिकारी होना।
    • अपराधों की सूचना जिला प्रशासन को देना।
    • वन संरक्षण और कानून व्यवस्था बनाए रखना।
    • किसी भी सरकारी अधिकारी को सहायता प्रदान करना।

    कोल्हान क्षेत्र के अन्य पदाधिकारी

    पदकार्य
    तीन मानकी समितिजटिल विवादों का समाधान
    डकुआमुण्डा का सहायक, बैठकों की सूचना देना
    तहसीलदारमानकी का सहायक, राजस्व संग्रहण कार्य
    दिउरीधार्मिक पूजा-पाठ और सामाजिक अपराधों का निपटारा
    यात्रा दिउरीग्राम देवी-देवताओं की पूजा और धार्मिक मामलों में सहभागी

    माँझी-परगना शासन व्यवस्था (संथाल परगना)

    संरचना

    • परगनैत (15-20 गाँवों का प्रमुख)
    • देश माँझी / मोड़े माँझी (5-8 गाँवों का प्रमुख)
    • माँझी (ग्राम प्रधान)
    • प्रानीक (उप-माँझी)
    • गोड़ाईत (सचिव और खजांची)
    • जोग माँझी (युवा नेतृत्व)
    • जोग प्रानीक (उप-जोग माँझी)
    • भग्दो प्रजा (ग्राम सभा के प्रमुख सदस्य)
    • लासेर टँगोय (सुरक्षा प्रमुख)
    • नायके (धार्मिक कार्यों का प्रमुख)
    • चौकीदार (अपराधियों को पकड़ने का कार्य)
    • दिशुम परगना (सभी परगनैतों का प्रमुख)

    विवाद निपटारा प्रक्रिया

    1. माँझी द्वारा गाँव में विवाद का निपटारा।
    2. असंतोष होने पर देश माँझी के पास मामला भेजना।
    3. आवश्यकता पड़ने पर परगनैत के पास अंतिम निर्णय के लिए भेजना।

    आपराधिक मामलों का निपटारा

    • हत्या जैसे गंभीर अपराध छोड़कर बाकी अपराध ग्राम स्तर पर निपटाए जाते हैं।
    • दंड का निर्धारण अपराध की गंभीरता के अनुसार किया जाता है:
      • हल्का दंड (करेला दंड) — 1.50 रु. तक।
      • गंभीर दंड में बड़ा आर्थिक दंड लगाया जाता है।
    • दोषी के पास धन नहीं होने पर भुगतान की अवधि दी जाती है।
    • गम्भीर अपराधों में रिहाई नहीं दी जाती।

    यौन अपराधों का निपटारा

    • पीड़िता या उसके अभिभावक द्वारा माँझी को सूचना दी जाती है।
    • बैठकी बुलाकर तीनों पक्षों (शिकायतकर्ता, आरोपी, गवाह) की बात सुनी जाती है।
    • दोषी पाए जाने पर:
      • विवाह का प्रस्ताव दिया जाता है (यदि दोनों सहमत हों तो)।
      • इनकार करने पर उपयुक्त दंड लगाया जाता है।

    1. अवैध संतान और विवाह का नियम (संताल समाज)

    • अवैध संतान होने पर उसे “जोग माँझी” गोत्र दिया जाता है।
    • लड़की के पिता किसी अन्य लड़के से विवाह करवा सकते हैं, सहमति पर।
    • विवाह होने पर हजनी (दहेज) के रूप में संपत्ति दी जाती है।

    2. परिवार और गाँव के विवाद

    • विवादों को सबसे पहले गाँव के माँझी के सामने लाया जाता है।
    • सभा बुलाकर गवाहों और पक्षों से सुनवाई होती है।
    • दंड का निर्धारण प्राणीक करता है।
    • यदि गाँव स्तर पर समाधान न हो, तो मामला देश माँझी और फिर परगनैत तक जाता है।

    3. बिटलाहा प्रथा

    • दंड न मानने पर सामाजिक बहिष्कार।
    • गाँव-गाँव जाकर समझाया जाता है।
    • नहीं मानने पर तय दिन, समय, स्थान पर ‘बिटलाहा’ कर दिया जाता है।

    4. सोहोर पंचायत (खड़िया समाज)

    • कई गाँव मिलकर बनाते हैं।
    • गाँव स्तर पर न सुलझने वाले मामले सोहोर पंचायत में जाते हैं।
    • सोहोर की अध्यक्षता में निर्णय लिया जाता है।

    5. ग्राम स्तर पर पंचायत व्यवस्था

    • झगड़े निपटाने के लिए महतो और बुजुर्गों की सभा।
    • महतो का नेतृत्व जरूरी।
    • भूमि विवादों का समाधान डोकलो और महतो करते हैं।
    • पर्व-त्योहारों का निर्णय भी महतो और बुजुर्ग करते हैं।
    • हत्या को छोड़कर अन्य गम्भीर मामलों का निपटारा गाँव में होता है।

    6. जातीय पंचायत और निजी पंचायत व्यवस्था

    • व्यक्तिगत झगड़ों के लिए निजी पंचायत बुलाई जा सकती है।
    • पंच और सरपंच मिलकर निर्णय करते थे।
    • अग्निपरीक्षा और शपथ के माध्यम से सत्यापन होता था।

    7. संथाल पंचायत प्रणाली (मांझी थान)

    • पंचायत के पाँच पदाधिकारी: माँझी, परानिक, जोग माँझी, जोग परानिक, गोडेत।
    • पंचायत का चुनाव कभी वार्षिक था, बाद में वंशानुगत।
    • सामाजिक अपराधों का दंड जैसे ‘बिटलाहा’ यहीं तय होता था।
    • अपील के लिए ‘मोड़े मांझी’ और ‘सेन्दरा वंसी’ में बैठक होती थी।

    8. अन्य जनजातीय पंचायतें

    • भूमिज, चेरो, उराँव, मुंडा, बिरहोर आदि जनजातियों की अलग-अलग पंचायतें थी।
    • पंचायत प्रमुख: महतो, देहरी, राजा, मुंडा, नाया आदि।

    9. नागवंशी शासन व्यवस्था

    • राजा शासन का प्रमुख था।
    • सेना, जमींदार, जागीरदार, ब्राह्मण, राजगुरु, पुरोहित प्रमुख सहयोगी।
    • राजस्व व्यवस्था में दीवान, पटवारी, अमीन की भूमिका।
    • परहा पंचायतें प्रशासन की नींव।
    • धीरे-धीरे कोल और उराँव का प्रभाव घटा, कायस्थ प्रभाव बढ़ा।

  • झारखंड का इतिहास: उत्तर मुगलकालीन युग से आधुनिक काल तक (1707–1942)

    झारखंड में मुगलोत्तर काल (1707-1765)

    • औरंगज़ेब की मृत्यु (1707) के बाद मुग़ल साम्राज्य कमजोर हुआ, जिससे झारखंड में भी अराजकता बढ़ी।
    • रामगढ़, पलामू और छोटानागपुर के इलाकों में स्थानीय राजा और जमींदारों ने अपनी सत्ता मजबूत करने की कोशिश की।
    • रामगढ़ राजा को बंगाल के सूबेदार से ‘मनसब’ प्राप्त था, लेकिन धीरे-धीरे रामगढ़ स्वतंत्र व्यवहार करने लगा।
    • छोटानागपुर में भी नागवंशी राजा मुग़ल प्रतिनिधियों से स्वतंत्रता की भावना रखने लगे थे।
    • पलामू में चेरो शासक मुग़लों के अधीन थे लेकिन समय के साथ वहां भी सत्ता संघर्ष उभरने लगे।
    • सिंहभूम में स्थानीय शासक लगभग स्वतंत्र थे और मुग़ल नियंत्रण बहुत कमज़ोर था।
    • बंगाल के नवाबों (जैसे मुर्शिद कुली खां, अलीवर्दी खां) ने कोशिश की कि झारखंड क्षेत्र पर कर वसूली और राजनीतिक नियंत्रण बना रहे, लेकिन वे पूरी तरह सफल नहीं हो पाए।
    • बार-बार विद्रोह और स्थानीय संघर्ष की स्थिति बनी रही, जिससे क्षेत्रीय सत्ता बिखरी रही।
    • 18वीं सदी के मध्य तक झारखंड का बड़ा हिस्सा नाम मात्र का मुग़ल या नवाबी अधीन रहा; असली नियंत्रण स्थानीय राजाओं के हाथों में था।

    आधुनिक काल (1765–1942)

    दीवानी और झारखंड की स्थिति

    • 12 अगस्त 1765 को सम्राट शाह आलम द्वितीय ने बिहार, बंगाल और उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इंडिया कम्पनी को 26 लाख वार्षिक कर पर प्रदान की।
    • झारखंड (तत्कालीन छोटानागपुर क्षेत्र) बिहार में शामिल था, लेकिन यह क्षेत्र बिहार-बंगाल से भिन्न था।
    • मुगलों और मराठों ने यहां समय-समय पर हमले किए परंतु स्थायी शासन स्थापित नहीं कर सके।
    • स्थानीय राजा स्वतंत्र रूप से शासन करते रहे; अंग्रेजों का हस्तक्षेप धीरे-धीरे बढ़ा।

    अंग्रेजों का झारखंड में प्रवेश

    सिंहभूम क्षेत्र में प्रवेश (1760)

    • मिदनापुर पर कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने सिंहभूम में रुचि ली।
    • सिंहभूम के तीन प्रमुख राज्य थे:
      • ढालभूम (ढाल राजाओं का क्षेत्र)
      • पौरहाट (सिंह राजाओं का क्षेत्र)
      • कोल्हान (हो जनजाति का क्षेत्र)

    विद्रोहियों की शरणस्थली: सिंहभूम, टमर, पटकुम और बाराभूम

    • ब्रिटिश आगमन से पहले, पूर्वी सिंहभूम, छोटानागपुर प्रॉपर, टमर, पटकुम और बाराभूम विद्रोहियों की शरणस्थली बन चुके थे।
    • कोल्हान के कोल योद्धा छोटानागपुर प्रॉपर, गंगपुर, बोनई, क्योंझर और बामनघाटी पर हमले करते थे।
    • लगातार हमलों से परेशान होकर पोरहाट के राजा ने ब्रिटिशों से सुरक्षा मांगी।

    हज़ारीबाग क्षेत्र में विखंडित शासन

    • मध्यकालीन काल में हज़ारीबाग में छोटे-छोटे राज्य थे:
      • रामगढ़
      • कुंडा
      • केंदी
      • छै
      • खरकडीहा
    • 1677–1724 के दौरान दलेल सिंह ने रामगढ़ पर शासन किया।
    • 1718 में दलेल सिंह ने छै के राजा मघर खान को हराकर उसकी हत्या की और कब्जा किया:
      • बीघा (राजधानी)
      • जगोदीह परगना
      • आठ अन्य तालुके
    • 1717–1724 तक छै दलेल सिंह के अधीन रहा।
    • 1719 में दलेल सिंह ने नागवंशी राजा की मदद कर पलामू के चेरो राजा रंजीत सिंह से तोरी परगना छीना।
    • बाद में मघर खान के पुत्र रनमस्त खान ने क्षेत्रों को पुनः हासिल कर लिया।
    • उसी वर्ष दलेल सिंह की मृत्यु हो गई और विष्णु सिंह उत्तराधिकारी बना।

    विष्णु सिंह की साजिशें और अवज्ञा

    • विष्णु सिंह ने छल से छै को फिर से अधीन किया।
    • महिपत खान ने सहायता मांगी:
      • इतखोरी के राजा शत्रुघ्न सिंह से
      • टेकारी के राजा सुंदर सिंह से
    • विष्णु सिंह को पकड़ा गया लेकिन ₹10,000 की रिश्वत देकर वह छूट गया।
    • टेकारी राजा ने बीघा और आठ तालुके जब्त कर लिए और पाँच साल तक रखे।
    • विष्णु सिंह ने बंगाल के नवाब की अवज्ञा की और कर देना बंद कर दिया।

    बंगाल की प्रतिक्रिया: हिदायत अली खान का अभियान

    • 1740 में नवाब अलीवर्दी खान ने हिदायत अली खान को भेजा।
    • विष्णु सिंह की हार हुई और उसे देना पड़ा:
      • ₹80,000 की बकाया राशि
      • कुछ नकद और कुछ भूमि के रूप में
    • रामगढ़ का वार्षिक कर ₹12,000 तय हुआ।

    छै की लड़ाई: महिपत खान की वंशावली की वापसी

    • 1747 तक विष्णु सिंह का छै पर नियंत्रण रहा।
    • महिपत खान की मृत्यु के बाद:
      • उत्तराधिकारी बना लाल खान
      • रतन सिंह (रामपुर के ज़मींदार) और लाल खान ने कामगार खान से मदद ली
    • कामगार खान ने रामगढ़ पर हमला कर विष्णु सिंह को हराया।
    • रतन सिंह और लाल खान ने अपनी भूमि वापस ली।
    • कामगार खान ने रामगढ़ को नष्ट कर दिया।

    शांति संधि और क्षेत्रों का विभाजन

    • समझौते के तहत:
      • रामपुर और जगोदीह लौटाए गए।
      • कामगार खान को बराकर नदी के उत्तर का क्षेत्र मिला।
      • विष्णु सिंह को नदी के दक्षिण का क्षेत्र मिला।

    अंतिम विद्रोह और ब्रिटिश प्रतिक्रिया

    • विष्णु सिंह ने फिर नवाब के विरोधियों से साजिश की।
    • 1763 में नवाब मीर क़ासिम ने मार्कट खान के नेतृत्व में सैन्य अभियान भेजा।
    • विष्णु सिंह पराजित हुआ।
    • सभी ज़मींदारों को भूमि वापस मिली।
    • मार्कट खान ने छै परगना का उत्तरी भाग नवाब के लिए रख लिया।

    मुकुंद सिंह का अवसरवाद और पराजय

    • विष्णु सिंह की मृत्यु के बाद मुकुंद सिंह रामगढ़ का राजा बना।
    • उसने बीघा और इतखोरी किलों पर कब्जा कर लिया और हथियार हासिल किए।
    • 1766 में वारिस खान की अगुवाई में उसे हराया गया।
    • मुकुंद सिंह ने सहमति दी:
      • ₹27,000 बकाया कर चुकाने की
      • बदले में छै पर अधिकार पाने की

    अंतिम समझौता और प्रशासनिक विभाजन

    • अगले वर्ष मुकुंद सिंह ने छै को पुनः रामगढ़ में मिला दिया।
    • छै परगना को पाँच भागों में विभाजित किया गया:
      • रामपुर
      • जगोदीह
      • परवारिया
      • इतखोरी
      • पीटी

    उपनिवेशी विजय की भूमिका

    • सिंहभूम, छोटानागपुर, पलामू और रामगढ़ की बिखरी स्थिति ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद की नींव रखी।
    • 1707–1765 का काल झारखंड में:
    • रियासतों की खंडित स्थिति
    • विश्वासघात
    • सैन्य संघर्षों से भरा था
    • मुग़ल शक्ति की कमी ने स्थानीय शासकों को जन्म दिया जिन्हें:
    • मराठों या
    • बंगाल के नवाबों ने नियंत्रित किया
    • ब्रिटिश धीरे-धीरे किनारे से सत्ता में प्रवेश कर गए—कुछ ने स्वागत किया, कुछ ने विरोध।

    अभियान और युद्ध

    • जनवरी 1767: फरगुसन को सिंहभूम आक्रमण की जिम्मेदारी मिली।
    • फरगुसन ने:
      • झाड़ग्राम के राजा को पराजित किया।
      • रामगढ़, जामबनी और सिलदा के राजाओं से आत्मसमर्पण करवाया।
      • जामवनी में धालभूम के राजा को हराया।
    • 22 मार्च 1767: धालभूम के जलते राजमहल पर कब्जा।
    • जगन्नाथ ढाल को राजा बनाया गया, बाद में नीमू ढाल को प्रतिस्थापित किया गया।

    सिंहभूम में संधियाँ

    • 1773: पोरहाट के राजा से एकरारनामा – कम्पनी के व्यापारियों और रैयतों को शरण न देने का वादा।
    • बाद में सरायकेला और खरसावां ने भी ऐसी ही संधियाँ कीं।

    कोल्हान और ‘हो’ जनजाति

    • ‘हो’ क्षेत्र कोल्हान पर न मुगल और न ही मराठा शासन कर सके।
    • स्वतंत्रता प्रेमी ‘हो’ जनजाति ने नागवंशी क्षेत्रों पर आक्रमण किए (1770, 1800)।
    • मार्गों की असुरक्षा से व्यापार बाधित हुआ; कम्पनी ने हस्तक्षेप करना शुरू किया।

    अंग्रेजों के सैन्य अभियान

    • 1820: मेजर रफसेज का हमला, आंशिक सफलता।
    • 1821: कर्नल रिर्चड के नेतृत्व में बड़ा हमला, ‘हो’ जनजाति ने आत्मसमर्पण किया।
    • शर्तें:
      • हल के हिसाब से कर देना (पहले 50 पैसा, फिर 1 रुपया प्रति हल)।
      • व्यापारियों और यात्रियों की सुरक्षा।
    • 1831–32: कोल विद्रोह में ‘हो’ सक्रिय रहे।
    • 1836–37: फिर से विद्रोह और फिर आत्मसमर्पण।
    • ‘हो’ क्षेत्र में ब्रिटिश प्रशासनिक इकाई स्थापित की गई।

    पलामू और छोटानागपुर में कम्पनी का विस्तार

    पलामू पर कब्जा (1771)

    • पलामू की स्थिति:
      • चेरो राजाओं (चिरंजीत राय और जयनाथ सिंह) का कब्जा था।
      • अंग्रेजों ने गोपाल राय का समर्थन किया।
    • जनवरी 1771: कैप्टन जैकब कैमेक को पलामू अभियान का आदेश मिला।
    • 21 मार्च 1771: पलामू किला पर कब्जा।
    • जुलाई 1771: गोपाल राय को पलामू का राजा घोषित किया गया।
    • मालगुजारी तय: 12,000 रुपये वार्षिक।
    • चेरो राजा रामगढ़ भाग गए।

    छोटानागपुर नागवंशी राजा की अधीनता

    • दर्पनाथ शाह ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार की।
    • सालाना 12,000 रुपये कर देने और मराठों के विरुद्ध सहायता का वचन दिया।
    • कैमेक और दर्पनाथ शाह के बीच पगड़ी और टोपी बदलकर समझौते की पुष्टि हुई।

    रामगढ़ और हजारीबाग

    • रामगढ़ के राजा मुकुन्द सिंह अंग्रेजों का प्रारंभ में विरोध करते रहे।
    • पड़ोसियों और अंग्रेजों के दबाव के कारण उसने बाद में मित्रता का प्रस्ताव भेजा।
    • रामगढ़, हजारीबाग, और अन्य क्षेत्रों में धीरे-धीरे कम्पनी का प्रभाव बढ़ता गया।
    • दीवानी मिलने के बाद अंग्रेजों का झारखंड पर कब्जा एक क्रमिक और रणनीतिक प्रक्रिया थी।
    • आपसी संघर्ष, अराजकता और स्थानीय राजाओं की कमजोरियों का अंग्रेजों ने भरपूर फायदा उठाया।
    • 1837 तक झारखंड के अधिकांश क्षेत्रों पर कम्पनी का मजबूत नियंत्रण स्थापित हो चुका था।

    लोहरदगा एजेन्सी का गठन और प्रशासन

    • मुख्यालय: लोहरदगा के किसनपुर में स्थापित किया गया।
    • प्रथम एजेन्ट: थॉमस विल्किन्सन, जो सीधे गवर्नर जनरल के प्रति जवाबदेह थे।
    • लोहरदगा एजेन्सी का प्रधान जिला था।
    • जिला अधिकारी: रॉबर्ट आउस्ले नियुक्त हुए।

    1854 के बाद:

    • साउथ वेस्ट फ्रंटियर एजेंसी समाप्त कर दी गई।
    • सम्पूर्ण छोटानागपुर को बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन किया गया।
    • नॉन-रेगुलेशन प्रांत के रूप में नया प्रशासनिक ढाँचा बना।
    • चुटियानागपुर कमिश्नरी का गठन:
      • इसमें लोहरदगा, हजारीबाग, मानभूम, सिंहभूम, सरगुजा, जसपुर, उदयपुर, गंगापुर आदि राज्य शामिल थे।

    मानभूम क्षेत्र

    • ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में मानभूम का क्षेत्र बड़ा था, जिसमें झरिया, कतरास, पर्रा, रघुनाथपुर, करीह, झालदा, जयपुर, हेसला, बालमुंडी, ईचागढ़, बलरामपुर, पंचेत, अभियनगर, चतना और बड़ाभूम शामिल थे।
    • 1767 में फरगुसन के मानभूम प्रवेश के समय पाँच बड़े स्वतंत्र जमींदार थे:
      • मानभूम, बड़ाभूम, सुपुर, अभियनगर और चतना।

    अंग्रेजों का संघर्ष:

    • स्थानीय प्रजा अनुशासनहीन और विद्रोही हो गई थी।
    • सैनिक कार्रवाई से सफलता नहीं मिलने पर सालाना बन्दोबस्त की नीति अपनाई गई।
    • मानभूम के बाद सिंहभूम, सरायकेला और खरसांवा पर नियंत्रण का प्रयास किया गया, जो दशकों तक पूर्ण नहीं हो सका।

    सिंहभूम और कोल्हान

    • 1837 में कैप्टन विल्किन्सन ने कोल्हान पर हमला किया।
    • इपिलासिंगी और पंगा गाँव जला दिए गए।
    • आत्मसमर्पण के बाद कोल्हान गवर्नमेंट इस्टेट का गठन हुआ।
    • पहला उपायुक्त: टिकेल नियुक्त हुए।
    • विल्किन्सन रूल्स (1833): 31 नियमों का प्रशासनिक कोड लागू किया गया।

    सरायकेला और खरसांवा:

    • सरायकेला: क्षेत्रफल लगभग 700 वर्ग किमी।
    • खरसांवा: क्षेत्रफल लगभग 225 वर्ग किमी।
    • 1934 में दोनों क्षेत्रों को ब्रिटिश राज्य में शामिल किया गया।

    संथाल परगना

    प्रारंभिक ब्रिटिश नीति:

    • पहाड़ी जनजातियाँ (‘हाईलैंडर’, ‘हिल मैन’) से शांति स्थापना का प्रयास।
    • आदिम जनजातियाँ आखेट और लूट पर आश्रित थीं।
    • मनीहारी के खेतौरी परिवार के अधीन इनका प्रशासन था।
    • मानसिंह ने लकड़ागढ़ किला जीतने में सहायता की थी और इन पहाड़ियों का नियंत्रण प्राप्त किया था।

    उपद्रव और ब्रिटिश प्रतिक्रिया:

    • 18वीं सदी में मालेरों ने लकड़ागढ़ पर हमला किया।
    • 1770 के अकाल के दौरान लूटमार में वृद्धि हुई।
    • राजमहल और गंगा के दक्षिणी तट पर भय का माहौल।
    • सरकारी हरकारों पर भी हमले हुए।

    सैन्य कार्रवाई और प्रशासनिक सुधार

    कैप्टन ब्रुक (1771-1774):

    • 800 सैनिकों के साथ “मिलिटरी गवर्नर” नियुक्त।
    • 283 गाँव बसाए।
    • जंगलों में फैले आतंक का दमन किया।

    कैप्टन जेम्स ब्राउन (1774-1778):

    • परंपरागत जनजातीय संरचना को मान्यता देने का प्रस्ताव।
    • सरदार-नायब-माँझी प्रणाली के अनुसार शासन व्यवस्था।
    • चौकीबंदी का सुझाव और स्थानीय पुलिस प्रणाली की नींव।

    अगस्तुस क्लीवलैंड और शांति स्थापना (1779-1784)

    • पहाड़ियाओं के साथ न्याय और मानवीय नीति अपनाई।
    • पहाड़ी सरदारों से मित्रता स्थापित।
    • क्लीवलैंड योजना:
      • पहाड़ियों को कृषि और सैनिक सेवा में जोड़ना।
      • 400 माँझियों की सेना तैयार करना।
      • सैनिकों को वेतन और वस्त्र प्रदान करना।
    • क्लीवलैंड को राजमहल पहाड़ियों में सभ्यता का अग्रदूत माना जाता है।

    झारखंड में क्लीवलैंड और पहाड़िया व्यवस्था का प्रभाव

    1. क्लीवलैंड की पहाड़िया नीति:
      • क्लीवलैंड ने पहाड़िया लोगों के जीवन में सुधार के लिए कई योजनाएँ बनाई।
      • उसने बाजारों की व्यवस्था की और पहाड़िया लोगों को शिकार, मोम, खाल, शहद जैसे उत्पाद बेचने के लिए प्रोत्साहित किया।
      • पहाड़िया लोगों को यह विश्वास दिलाया कि उन पर कर नहीं लगेगा और उनके मुखिया ही उनके प्रशासनिक अधिकारी होंगे।
    2. क्लीवलैंड की नीति का प्रभाव:
      • क्लीवलैंड की नीति ने पहाड़िया लोगों के बीच शांति और स्थिरता लाई।
      • मि. वार्ड की टिप्पणी के अनुसार, क्लीवलैंड के बाद भी शांति बनी रही और अपराध बहुत कम हुए।
    3. क्लीवलैंड की योजनाओं का टूटना:
      • क्लीवलैंड की योजनाएँ उसकी मृत्यु के बाद प्रभावी नहीं रहीं।
      • पहाड़िया पंचायतें अस्त-व्यस्त हो गईं और योजनाएँ बंद हो गईं, जैसे कि विद्यालयों का बंद होना और कुटीर उद्योग की योजनाएँ अधूरी रह गईं।
      • क्लीवलैंड की ‘हिल रेंजर्स’ को भी उतनी प्राथमिकता नहीं दी गई, जितनी अपेक्षित थी।
    4. हेस्टिंग्स का सुधार प्रयास:
      • मार्किस ऑफ हेस्टिंग्स ने क्लीवलैंड की योजनाओं में सुधार करने की कोशिश की, जैसे कि खेती के उपकरण और बीज भेजने का वादा, लेकिन उसे पूरा नहीं किया गया।
    5. फोम्बेल का सुधार:
      • मि. फोम्बेल ने पहाड़िया व्यवस्था को ठीक करने की कोशिश की, लेकिन इसके बाद के शासकों ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई।
      • उसने 1796 के अधिनियम में बदलाव किया, जिससे पहाड़िया पंचायतों को मजिस्ट्रेट के अधीन लाया गया।
    6. अब्दुल रसूल खान का भ्रष्टाचार:
      • बाद में, अब्दुल रसूल खान ने क्षेत्र का नियंत्रण लिया, लेकिन उसकी अत्याचारपूर्ण शासन के कारण जनमानस में असंतोष बढ़ा।
    7. संतालों का आगमन और शोषण:
      • संतालों ने भागलपुर और वीरभूम में बसने की शुरुआत की और बाद में दामिन-ई-कोह में बड़ी संख्या में बस गए।
      • उनका शोषण करने के लिए महाजनों ने कर्ज़ प्रणाली का प्रयोग किया, जिससे संताल कर्ज में फंस गए और उन्हें न्याय की कमी का सामना करना पड़ा।
    8. संताल विद्रोह:
      • 1855 में संतालों का विद्रोह, जिसे ‘हुल’ कहा जाता है, उत्पन्न हुआ। यह शोषण, भ्रष्टाचार और सरकारी उपेक्षा का परिणाम था।
      • विद्रोह का कारण सरकारी अधिकारियों की अनुपस्थिति, महाजनों द्वारा अत्यधिक सूद वसूली और पुलिस की भ्रष्टाचारपूर्ण भूमिका थी।
    9. प्रशासनिक स्थिति:
      • दामिन-ई-कोह में न्याय और प्रशासन की स्थिति बिगड़ गई थी, जहां संतालों को न्याय पाने के लिए भागलपुर और देवघर जाना पड़ता था।
      • संतालों के पास सीमित संसाधन और अत्यधिक शोषण के कारण उनका जीवन कठिन हो गया।
    10. संतालों का संघर्ष:
      • संताल अपनी आदतों, कर्ज़ और प्रशासनिक असुविधाओं के कारण लगातार शोषण के शिकार हो रहे थे।
      • उन्हें महाजनों और अधिकारियों से न्याय नहीं मिल रहा था, और यही कारण था कि संताल विद्रोह की ओर बढ़े।

    संताल विद्रोह और उसके परिणाम: एक ऐतिहासिक विश्लेषण

    संताल विद्रोह (1855-1856), जिसे “हुल” भी कहा जाता है, भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक महत्वपूर्ण जनविद्रोह था। इस विद्रोह ने ना केवल संतालों के संघर्ष को उजागर किया, बल्कि ब्रिटिश सरकार को भारत के आदिवासी क्षेत्रों में प्रशासनिक और न्यायिक सुधारों की आवश्यकता का एहसास भी दिलाया। इस विषय पर आधारित एक ब्लॉग में निम्नलिखित बुलेट पॉइंट्स में जानकारी प्रस्तुत की जा सकती है:

    1. संतालों का शोषण और उनके विद्रोह के कारण

    • संतालों को बँधुआ मजदूरी, अत्यधिक सूद दरों पर कर्ज, और भूमि का छीनना जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था।
    • जमींदार, महाजन, और ब्रिटिश अधिकारियों के शोषण ने संतालों को विद्रोह के लिए मजबूर किया।
    • संतालों की भूमि, जो वे जंगलों को साफ करके कृषि के लिए इस्तेमाल करते थे, को जमींदारों द्वारा छीन लिया जा रहा था।

    2. सिद्धु-कान्हू और उनके संदेश का प्रभाव

    • सिद्धु, कान्हू, चाँद और भैरव नामक चार भाइयों ने एक दैवी संदेश का प्रचार किया, जिसमें देवता ने संतालों को न्याय की ओर प्रेरित किया।
    • 30 जून, 1855 को लगभग 10,000 संताल भोगनाडीह में इकट्ठा हुए, जहाँ उन्हें देवता का आदेश सुनाया गया और संतालों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का आह्वान किया गया।

    3. विद्रोह की शुरुआत और संघर्ष

    • संतालों ने 7 जुलाई 1855 को दारोगा महेशलाल दत्त की हत्या कर दी, जब वह उन्हें सरकारी आदेशों का पालन करने के लिए कहने पहुंचे थे।
    • इसके बाद संतालों ने भागलपुर और वीरभूम तक विद्रोह फैलाया और सरकारी ठिकानों को निशाना बनाया।
    • संतालों की तीर-धनुष और कुल्हाड़ियों के साथ संघर्ष में ब्रिटिश सेना को कई बार पराजित किया।

    4. ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया

    • ब्रिटिश सरकार ने संताल विद्रोह को दबाने के लिए सैनिक भेजे, जिनमें मेजर बरो और कर्नल बर्ड शामिल थे।
    • अगस्त 1855 तक विद्रोह को नियंत्रण में लाने के प्रयास किए गए, लेकिन संतालों ने जंगलों में छिपकर संघर्ष जारी रखा।
    • अंततः, 1856 तक, संतालों को ब्रिटिश सेना द्वारा पराजित कर दिया गया, लेकिन संतालों का संघर्ष उनके अधिकारों के लिए जारी रहा।

    5. संतालपरगना जिले का गठन और सुधार

    • 1855 का रेगुलेशन XXXVII लागू किया गया, जिसके तहत दामिन-ई-कोह को भागलपुर और वीरभूम से अलग कर एक नया जिला संतालपरगना बनाया गया।
    • इस नए जिले में चार अनुमंडल (दुमका, गोड्डा, देवघर, और राजमहल) बने और संतालों के लिए प्रशासनिक सुधार किए गए।
    • गाँवों में मुखिया प्रथा को मान्यता दी गई, जिससे संतालों और प्रशासन के बीच सीधे संपर्क का रास्ता खुला।

    6. ब्रिटिश प्रशासन की प्रतिक्रिया और सुधार

    • संताल विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार ने अपनी नीतियों में बदलाव किए और संतालों के अधिकारों के लिए सुधारों की दिशा में कदम उठाए।
    • जमींदारों और महाजनों द्वारा संतालों का शोषण रोकने के लिए कानून बनाए गए और संतालों को अपनी भूमि का अधिकार वापस दिलाने का प्रयास किया गया।

    7. विद्रोह के बाद के प्रभाव

    • संताल विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार को यह सोचने पर मजबूर किया कि आदिवासी क्षेत्रों में प्रभावी प्रशासनिक नियंत्रण की आवश्यकता है।
    • इस विद्रोह ने भारतीय समाज में जागरूकता का संचार किया और भविष्य में हुए आंदोलनों का मार्ग प्रशस्त किया।