प्रारंभिक सांस्कृतिक एवं धार्मिक प्रभाव
- झारखंड (विशेषकर छोटानागपुर क्षेत्र) में प्राचीन काल में द्रविड़ संस्कृति का गहरा प्रभाव रहा।
- महादेव (शिव) और मातृ देवी की पूजा द्रविड़ परंपरा से शुरू हुई।
- कृषि की शुरुआत ‘झूम खेती’ से हुई।
- व्यापार, प्रशासन और सामाजिक जीवन की संरचना द्रविड़ों से विकसित हुई।
बौद्ध और जैन प्रभाव
- बौद्ध व जैन भिक्षुओं ने आदिवासी समाज पर गहरा प्रभाव डाला।
- इनके कारण समाज में नियमबद्ध जीवनशैली और आस्था विकसित हुई।
सामाजिक एवं धार्मिक संरचनाओं का विकास
- सामाजिक जीवन पारंपरिक व्यवस्थाओं से संचालित होने लगा:
- पाहन (पुरोहित)
- मुंडा (ग्राम प्रमुख)
- परहा पंचायत (सामुदायिक पंचायत)
- नागवंशी शासकों के आगमन से राजशाही की शुरुआत हुई।
- ब्राह्मणवाद और पुरोहितवाद का उदय इसी समय हुआ।
नए सामाजिक वर्गों का उदय
- महाजन (साहूकार), भंडारी (गौदाम संचालक), शिल्पी (कारीगर) जैसे नए वर्ग उभरे।
- समाज में वर्गभेद और असमानता की शुरुआत हुई।
मुगल काल और प्रशासनिक परिवर्तन
- चौधरी, मुकद्दम, घाटवारी, कानूनगो, दीवान जैसे प्रशासनिक पदों की शुरुआत हुई।
- एक सशक्त मध्यम वर्ग का विकास हुआ।
आदिवासी विस्थापन और बाहरी प्रभाव
- पारंपरिक ‘खुटकट्टी’ व्यवस्था (आत्मनिर्भर आदिवासी समाज) में बाहरी लोगों की घुसपैठ हुई।
- कई पारंपरिक जनजातियाँ जैसे बिरहोर, खड़िया और असुर दूरस्थ क्षेत्रों में पलायन करने को मजबूर हुईं।
- चेरो, खड़वार, संताल जैसी नई जनजातियाँ पलामू, हजारीबाग आदि क्षेत्रों में आईं।
हिंदू-मुस्लिम प्रभाव
- आदिवासी समाज में जातिवादी प्रथाएं, व्रत, स्नान, सिंदूरदान, मूर्तिपूजा जैसी परंपराएँ आईं।
- स्थानीय देवताओं को हिंदू रूप में अपनाया गया:
- सिंबोंगा → महादेव बोंगा
- पार्वती → चंडी बोंगा
- सूर्य देव → बेला भगवान (खड़िया जनजाति)
सांस्कृतिक समन्वय (संस्कृतिक समिश्रण)
- आदिवासी परंपराओं में हिंदू रीति-रिवाजों का समावेश:
- पहनावे में पगड़ी, धोती, साड़ी
- महिलाएँ पहनने लगीं लहंगा, चूड़ी, बाला आदि
- हिंदू मेले (जात्रा मेला) का आयोजन
- सादान समाज ने आदिवासी परंपराएँ अपनाईं:
- बहुरता, सेनैयी जीरा जैसे नृत्य
- हाथों में हंसुली, टरकी, चूड़ला जैसे आभूषण
प्रमुख जनजातियों की धार्मिक मान्यताएँ
मुंडा जनजाति
- प्रकृति पूजा और पूर्वजों की आराधना
- प्रमुख देवता: सिंबोंगा, मरांग बुरू
उरांव जनजाति
- सर्वोच्च देवता: धर्मेस या धर्मी (हिंदू ब्रह्मा के समान)
- ईश्वर को मानते हैं, परंतु पाप-पुण्य और नरक-स्वर्ग जैसी अवधारणाएँ नहीं
- भूत-प्रेत और टोनही से बचाव हेतु ईसाई धर्म अपनाया
उरांव की विशेष धार्मिक अवधारणाएँ:
- मारांग बुरू, बोंगा आत्माओं की पूजा
- देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व पत्थर या मिट्टी के ढेलों से
- भैंस की बलि
- दरहा: बुरे आत्मा की पूजा (लोहे का हल 3 साल में बदलते हैं)
- आत्माएँ पत्थर, नदी, पेड़, जंगल में निवास करती हैं
- डिलीवरी में मरने वाली स्त्री चुड़ैल बन जाती है (पीछे की ओर पैर)
भगत परंपरा:
- कुछ उरांव “भगत” कहलाते हैं (आध्यात्मिक दीक्षा प्राप्त)
- शिव-गणेश की मूर्तियाँ रखते हैं, लेकिन सामान्य उरांवों से दूरी बनाए रखते हैं
संताल जनजाति
- प्रकृति पूजा, आत्माओं की उपासना
- मुख्य देवता: सिंबोंगा (सूर्य देव), मरांग बुरू, ठाकुर जिउ
- हपरा माको (पूर्वजों) की कृपा से सुख-शांति
- अन्य देवता: गोसाई एरा, मोडेको, तूइको, जौहार, ओड़क बोंगा
- प्रमुख पूजा स्थल:
- मांझी थान (गाँव के बीच पूर्वजों की पूजा)
- जाहेर थान (गाँव के बाहर देवी स्थान), जहाँ महिलाएँ प्रवेश नहीं करतीं
- भूत-प्रेत, टोना-टोटका, ओझा और सोखा प्रथा
- उमेहाड़: ईसाई संतालों के लिए प्रयुक्त शब्द
बिरहोर जनजाति
- प्रमुख देवता: मय, सिंबोंगा, बुरु बोंगा, बदहवीर, लघु बुरू, हनुमान बिऱ, हुडंग बिऱ
- नयाय (पुरोहित) पूजा करता है:
- जल पीने से पहले
- शिकार पर निकलने से पहले
- मृत्यु उपरांत
कोरवा जनजाति
- सिंबोंगा को मुख्य देवता मानते हैं, परंतु हिंदू देवताओं का भी प्रभाव
- अन्य देवता:
- इंद्र (वर्षा देव)
- धरती (अन्नदायिनी)
- गामेल्ट, राक्सेल, दरहा, चंडी, सोखा
- बायगा (पुरोहित) पूजन करता है
- दुष्ट आत्माएँ: दया, चक्रे बैमत, बल कुंबर, बाल लिंगा, वाहन पिशाच, दकनी आदि
हो जनजाति
- पूर्वजों और मरांग बोंगा की पूजा
- “आदिंग” (घर का पवित्र भाग) में ही हड़िया, भोजन पहले चढ़ाया जाता है
- टोना-टोटका में विश्वास
- रोगों के पीछे आत्मा, बोंगा, पिशाच जिम्मेदार
- उपाय: बलि, ओझा, देवता पूजन
- अन्य देवता: ग्रामसिंद, बराम, वासुकी, सिंबोंगा
खड़िया जनजाति
- सूर्य की पूजा: ठाकुर या बेला भगवान (मुर्गा बलि सहित)
- पूर्वजों की पूजा: श्रावण व भाद्रपद में
- प्रमुख पुजारी: दिहरी (पहाड़ी खड़िया), पाहन (दूध/लाकी खड़िया)
- वार्षिक पूजा:
- ज्येष्ठ: सूर्य पूजा
- आषाढ़: वर्षा के लिए
- श्रावण: पूर्वज पूजा
- चैत्र-वैशाख: शिकार पूजा
किसान और भूमिज जनजातियाँ
- सूर्य देवता को सफेद मुर्गा चढ़ाते हैं
- आत्मा और भूतों में विश्वास
चेरो जनजाति
- तंत्र-मंत्र, टोना-टोटका का महत्व
- प्रमुख पूजा स्थल:
- गैहाल स्थान
- देवी स्थान
- कुल देवता स्थान
- पेड़-पत्थर को देवता मानते हैं
- कोई मूर्ति या मंदिर नहीं
- बायगा पुजारी होते हैं, कुछ जगहों पर दिहर भी
- मृत्यु पर हिंदू रीति अपनाते हैं
सादान व हिंदू प्रभाव
- प्रमुख हिंदू देवी-देवता: शिव, पार्वती, काली, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, हनुमान, विष्णु
- प्रमुख उत्सव:
- वसंत पंचमी: सरस्वती पूजा
- दशहरा: दुर्गा पूजा
- दीपावली: लक्ष्मी और काली पूजा
- चैत्र: हनुमान जयंती
- कारखानों में विश्वकर्मा पूजा
झारखंड में ईसाई धर्म
- मिशनरी कार्य लगभग 200 साल पूर्व प्रारंभ
- 6 जून 1850: पहली प्रमुख धर्मांतरण घटना
- संताल सर्वाधिक प्रभावित—1947 तक 3% संताल ईसाई बन चुके थे
- प्रमुख मिशन:
- चर्च मिशन सोसाइटी (1862)
- रोमन कैथोलिक मिशन (1869)
- योगदान:
- शिक्षा, स्वास्थ्य, आधारभूत संरचना
- वर्तमान ईसाई जनसंख्या: 9.41%
- प्रमुख क्षेत्र: राँची, गुमला, सिमडेगा, सिंहभूम, लोहरदगा, संताल परगना
- ईसाई जनजातियाँ: कुल आदिवासी जनसंख्या का 14.5%
- प्रमुख चर्च: सेंट पॉल्स चर्च, जीईएल चर्च आदि
- ईसाई साक्षरता दर: 67.9%
- गुमला: सबसे अधिक ईसाई
- देवघर: सबसे कम
प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव और मिशनरियों पर प्रभाव
- प्रथम विश्व युद्ध के कारण जर्मन मिशनरियों को नजरबंद कर जर्मनी वापस भेजा गया।
- एंग्लिकन बिशप वेस्टकॉट को GEL (German Evangelical Lutheran) मिशन की देखरेख और भारतीय पादरियों को मार्गदर्शन का काम सौंपा गया।
- GEL मिशन एंग्लिकन पर्यवेक्षण के तहत था, लेकिन लूथरन मिशन को एसपीजी (Society for the Propagation of the Gospel) में विलय करने का प्रयास नहीं किया गया।
- दक्षिण भारतीय और अमेरिकी लूथरन मिशनरियों ने छोटानागपुर में लूथरन मिशन का समर्थन जारी रखा।
- समय के साथ, एंग्लिकन और लूथरन मिशनों के बीच अविश्वास कम हुआ और अंततः दोनों का सहयोग बढ़ा।
- स्थानीय भारतीय पादरियों का उदय हुआ, जिन्होंने यूरोपीय मिशनरियों की जगह चर्च नेतृत्व संभाला।
स्वदेशी नेतृत्व और चर्च का विकास
- मार्च 1916 में रेव. एच.डी. लाकड़ा को स्थानीय पादरी नियुक्त किया गया।
- 1917 में एसपीजी ने गोस्नर मिशन के साथ विलय का प्रस्ताव रखा, लेकिन GEL मिशन की केंद्रीय समिति ने इसे अस्वीकार कर दिया।
- अमेरिकी और दक्षिण भारतीय लूथरन मिशनों ने विलय का विरोध किया, जिससे दो मिशन अलग-अलग बने रहे।
- जुलाई 1919 में गोस्नर मिशन स्वशासी और स्वावलंबी चर्च बन गया।
रोमन कैथोलिक मिशन का विकास
- 1869 में फादर स्टॉक के आगमन से शुरू हुआ, 1885 में फादर कॉन्स्टेंट लिवेन्स के नेतृत्व में तेजी आई।
- मिशन क्षेत्र पांच भागों में विभाजित थे: तोरपा, डोरमा, डिचिया, कर्रा, उपकारा, चाईबासा, और हजारीबाग।
- फादर लिवेन्स ने बड़े पैमाने पर धर्मांतरण किए और आदिवासी लोगों के अधिकारों के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी।
- भूमि कानूनों और अधिकारों के बारे में ज्ञान देकर आदिवासियों की मदद की।
- ब्रिटिश प्रशासन से टकराव और संघर्ष भी हुए, खासकर जब धर्मांतरित लोग जमींदारों के खिलाफ खड़े हुए।
- मिशन ने कई चर्च, स्कूल और अस्पताल स्थापित किए।
- फादर हॉफमैन और अन्य मिशनरियों ने प्रशासनिक सुधारों और सामाजिक कार्यों में योगदान दिया।
- 1920 तक छोटानागपुर में कैथोलिक ईसाइयों की संख्या बढ़कर लगभग 1 लाख हो गई, और 1947 तक 5 लाख तक पहुंच गई।
अन्य प्रमुख मिशनरी गतिविधियाँ
यूनाइटेड फ्री चर्च ऑफ़ स्कॉटलैंड
- 1871 में चिकित्सा मिशन से शुरुआत।
- पचंबा, सावलपुर, पालगंज, बारीटांड जैसे केंद्र विकसित हुए।
- डॉ. एंड्रयू कैंपबेल जैसे प्रमुख मिशनरियों ने स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा में योगदान दिया।
- उनके न्यायालय ने स्थानीय लोगों का विश्वास जीता।
- 1929 में मिशन का नाम बदलकर चर्च ऑफ़ स्कॉटलैंड का संथाल मिशन कर दिया गया।
डबलिन यूनिवर्सिटी मिशन
- 1891 में हजारीबाग में शुरू हुआ।
- मेलों और बाजारों में प्रचार, साहित्यिक सभाओं का आयोजन।
- सेंट कोलंबा कॉलेज की स्थापना, जो 1904 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबद्ध हुआ।
- स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा में विस्तार।
सेवेंथ डे एडवेंटिस्ट चर्च
- रांची में 1923 में शुरू।
- बरगई में स्कूल स्थापित किया।
- आहार नियमों और जीवनशैली पर ध्यान दिया।
झारखंड में धार्मिक जीवन और मिशनरी प्रभाव
- छोटानागपुर में मुख्य रूप से तीन ईसाई मिशन सक्रिय थे: एंग्लिकन (CNI), लूथरन (GEL), और रोमन कैथोलिक।
- 1947 तक ईसाई अनुयायियों की संख्या लगभग 4 लाख थी।
- मिशनों के बीच आंतरिक संघर्ष, सांस्कृतिक पहचान और जनजातीय प्रभुत्व के कारण तनाव भी रहा।
- ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुधार, और कानूनी मदद के माध्यम से आदिवासी समाज पर गहरा प्रभाव डाला।