फेटल सिंह खरवार – जनजातीय अधिकारों के संघर्षशील योद्धा
प्रारंभिक जीवन
- जन्म: 7 मई 1885, बहाहारा गाँव, गढ़वा ज़िला (अब झारखंड)।
- पिता: लगन सिंह – पंचायत चट्टा के मुखिया थे।
- पढ़ाई नहीं कर सके क्योंकि गांव के आसपास स्कूल नहीं था।
- वन क्षेत्र में रहने के कारण जल-जंगल-जमीन की व्यवहारिक शिक्षा मिली।
- बचपन से ही ढेल बाँस (गुलेल) और झटहा (छोटा डंडा) के प्रयोग में महारत हासिल थी।
- परम्परा अनुसार तेवार गाँव के गंगा सिंह की पुत्री फूलवासी से बाल विवाह हुआ।
राजनीतिक चेतना और गांधीजी से प्रेरणा
- महात्मा गांधी के आंदोलनों से गहरा प्रभावित थे।
- गढ़वा से सरगुजा तक लोगों को वनभूमि अधिकारों के लिए जागरूक और संगठित किया।
- रैयतों की भू-बंदोबस्ती को लेकर आजादी के समय लोग ठगा महसूस करने लगे।
भूमि व्यवस्था और संघर्ष की शुरुआत
- क्षेत्र में दो प्रकार की भूमि राजस्व पद्धतियाँ थीं:
- जमींदार पद्धति
- रैयतदारी पद्धति
- जनजातीय बहुल क्षेत्रों में डेढ़ी-बाड़ी (अत्यधिक सूद) के कारण बंधुआ मजदूरी की समस्या भी थी।
- 1949 में जमींदारी उन्मूलन विधेयक और 1950 में भूमि सुधार कानून पारित हुआ।
वनभूमि विवाद और जनजातीय विस्थापन
- जमींदारी समाप्ति के बाद जमींदारों ने बकास्त (गैर मजरूआ) ज़मीनें वन विभाग को दे दीं।
- इससे खरवार, भोक्ता, परहिया, भुईया, कोरता आदि जनजातियाँ भूमिहीन हो गईं।
1958 का संघर्ष और पुलिस मुठभेड़
- 1958 में आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया।
- उस समय पलामू से सरगुजा तक 76% हिस्सा वन से ढका हुआ था।
- 12 जनवरी 1958 को पुलिस पार्टी से टकराव हुआ।
- लोग हथियारों से लैस थे, फायरिंग हुई।
- पुलिस फायरिंग में कुम्भकरण नामक व्यक्ति की मृत्यु हो गई (जो फेटल सिंह के भतीजे थे)।
- फेटल सिंह और उनके कुछ समर्थक गिरफ्तार हुए।
कारावास और रिहाई
- जेल में फेटल सिंह का स्वास्थ्य बिगड़ गया।
- गढ़वा और पलामू के नेताओं ने राष्ट्रपति और राज्यपाल से माफी की अपील की।
- स्वतंत्रता सेनानी और जेल में अच्छे आचरण के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया।
- उन्हें लगभग एक साल जेल में रहना पड़ा।
अंतिम समय और विरासत
- जेल से निकलने के बाद वह काफी बदल गए, उम्र और स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया।
- फिर भी जमीन अधिकारों के लिए जीवनपर्यंत जागरूक रहे।
- 31 दिसम्बर 1975 को उनका निधन हुआ।
- उनका अंतिम संस्कार कन्हर नदी के किनारे उनके भतीजे कुम्भकरण के बगल में किया गया।
- अस्थियाँ बहाहारा गांव में उनके घर के सामने गाड़ी गई।
- वहां बनी उनकी समाधि आज भी उनके संघर्षों की याद दिलाती है।
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