नागवंशी और चेरो

परिचय

बिहार का एक परिभाषित हिस्सा बनने से बहुत पहले, छोटानागपुर क्षेत्र—जिसमें वर्तमान का रांची और पलामू शामिल हैं—भारतीय इतिहास में एक कम ज्ञात सीमांत रहा है। अक्सर इसकी समृद्ध जनजातीय संस्कृति और मानवशास्त्र के लिए अध्ययन किया गया है, इस क्षेत्र का राजनीतिक इतिहास काफी हद तक अंधकार में रहा। यह ऐतिहासिक अध्ययन 1585 ई. से 1830 ई. के बीच घटित जटिल और गतिशील राजनीतिक घटनाओं को उजागर करता है—एक ऐसा काल जिसमें मुगल आक्रमण, मराठों का प्रभाव और ब्रिटिश विजय देखने को मिलती है।

यह अध्ययन दो प्रमुख राजवंशों पर केंद्रित है: रांची (उस समय ‘कोकराह’ के नाम से जाना जाता था) के नागवंशी शासक और पलामू के चेरो शासक। यह इनके आपसी संबंधों, प्रतिरोध और अंततः बाहरी शक्तियों के अधीन होने की कहानी को सामने लाता है। यह घटनाक्रम एक विशाल साम्राज्यवादी परिदृश्य—मुगल साम्राज्य से लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी तक—की पृष्ठभूमि में घटित होता है।

एक रोचक तथ्य यह है कि रांची के नाम का विकास कैसे हुआ—मुगल काल में कोकराह से शुरू होकर, फिर छूटिया नागपुर, छोटा नागपुर और अंततः 19वीं सदी के मध्य तक ‘छोटानागपुर’ बन गया। वहीं, पलामू ने अपना नाम लगभग यथावत रखा, केवल वर्तनी में हल्के परिवर्तन हुए।

इस ग्रंथ की विषयवस्तु पाँच विस्तृत अध्यायों में संरचित है:

  • अध्याय I और II मुगल काल को समर्पित हैं—प्रारंभिक आक्रमण, चेरो शासन की स्थापना और मराठा खतरों की बढ़ती उपस्थिति को कवर करते हैं।
  • अध्याय III ब्रिटिश शासन की ओर संक्रमण को दर्शाता है, जिसमें ईस्ट इंडिया कंपनी की बढ़ती रुचि और सैन्य अभियानों का उल्लेख है।
  • अध्याय IV ब्रिटिश नियंत्रण के विरुद्ध प्रतिरोध, आंतरिक विद्रोह और नागवंशी व चेरो वंशों के पतन की चर्चा करता है।
  • अध्याय V स्थानीय स्वशासन के अंतिम चरण को दर्शाता है, जहाँ स्थानीय शासकों को ज़मींदार बना दिया गया और प्रत्यक्ष ब्रिटिश प्रशासन लागू हुआ।

यह कृति भारतीय इतिहास के एक उपेक्षित अध्याय को एक नई दृष्टि प्रदान करती है, जो उस क्षेत्र के राजनीतिक परिवर्तन को जोड़ती है जिसने उपमहाद्वीप की सत्ता संरचना में एक शांत लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इतिहास के शौकीनों, छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए यह पुस्तक पूर्वी भारत की औपनिवेशिक शासन से पहले की राजनीतिक संरचना को समझने की एक आवश्यक खिड़की खोलती है।

अध्याय I

प्रारंभिक मुगल संपर्क: रांची और पलामू (1585–1657 ई.)

भाग A: रांची

दुर्जन साल ने बाद में खिराज देने से इनकार कर दिया, जिससे मुगल सैन्य कार्रवाई हुई।

नागवंशी शासन:

  • यह क्षेत्र नागवंशी वंश के अधीन था, जिनकी वंशावली फणि मुकुट राय से जुड़ी थी।
  • राजधानी सुतियाम्बे से खुखरा स्थानांतरित हुई, जो बाद में पूरे राज्य का पर्याय बन गई।
  • मध्यकालीन मुस्लिम स्रोतों में इस क्षेत्र को कोकरा, खोखरा या कुकरा-देश कहा गया।

1585 से पहले की स्थिति:

  • नागवंशी शासक अपेक्षाकृत अलग-थलग रहते थे और वनों से सुरक्षित थे।
  • बंगाल/उड़ीसा की ओर मुस्लिम अभियानों ने कोकराह को नजरअंदाज किया; यह क्षेत्र अछूता रहा।

अकबर के शासन में मुगलों की रुचि:

  • कोकराह की नदियों में हीरे होने की कहानियों से प्रेरित होकर।
  • राजनीतिक उद्देश्य: यह क्षेत्र शेरशाह और अफगान विद्रोहियों का शरणस्थल रहा था।
  • मुगलों ने अपने पूर्वी सीमांत को सुरक्षित करना चाहा।

आक्रमण की भूमिका:

  • 1575 में, अफगान नेता जुनैद ने झारखंड के रास्ते बिहार जाने का प्रयास किया; रामपुर (हजारीबाग) के पास हार गया।
  • यह कोकराह के रणनीतिक स्थान के प्रति मुगलों की जागरूकता का संकेत देता है।

मुगल आक्रमण (1585 ई.):

  • शाहबाज़ ख़ान कंबू ने कोकराह में मुगल सेना का नेतृत्व किया।
  • क्षेत्र को लूटा गया; नागवंशी शासक ने आत्मसमर्पण किया और खिराज देने पर सहमति दी।

शासक की पहचान:

  • अकबरनामा और मआसिर-उल-उमरा में शासक का नाम मधु सिंह बताया गया है।
  • कुछ ब्रिटिश कालीन रिकॉर्ड उन्हें बैरी साल कहते हैं, जो संभवतः एक गलत पहचान है।
  • विद्वान उन्हें मधु करण साहि (मधुकर शाह) के रूप में पहचानते हैं।

आक्रमण के बाद की घटनाएँ:

  • मधु करण साहि संभवतः मुगल दरबार गए और विश्वास अर्जित किया।
  • नागवंशी शासकों ने ‘शाह’ या ‘साहि’ की उपाधि अपनानी शुरू की, जो मुगलों की नकल थी।

साम्राज्य की सेवा:

  • 1592 में, मधु करण साहि ने यूसुफ चक के अधीन उड़ीसा में एक मुगल अभियान में भाग लिया।
  • इससे उनकी मुगलों के प्रति निष्ठा स्पष्ट होती है।

मधु करण साहि के बाद:

अध्याय I

प्रारंभिक मुगल संपर्क: रांची और पलामू (1585–1657 ई.)

भाग A: रांची

दुर्जन साल ने बाद में खिराज देने से इनकार कर दिया, जिससे मुगल सैन्य कार्रवाई हुई।

नागवंशी शासन:

  • यह क्षेत्र नागवंशी वंश के अधीन था, जिनकी वंशावली फणि मुकुट राय से जुड़ी थी।
  • राजधानी सुतियाम्बे से खुखरा स्थानांतरित हुई, जो बाद में पूरे राज्य का पर्याय बन गई।
  • मध्यकालीन मुस्लिम स्रोतों में इस क्षेत्र को कोकरा, खोखरा या कुकरा-देश कहा गया।

1585 से पहले की स्थिति:

  • नागवंशी शासक अपेक्षाकृत अलग-थलग रहते थे और वनों से सुरक्षित थे।
  • बंगाल/उड़ीसा की ओर मुस्लिम अभियानों ने कोकराह को नजरअंदाज किया; यह क्षेत्र अछूता रहा।

अकबर के शासन में मुगलों की रुचि:

  • कोकराह की नदियों में हीरे होने की कहानियों से प्रेरित होकर।
  • राजनीतिक उद्देश्य: यह क्षेत्र शेरशाह और अफगान विद्रोहियों का शरणस्थल रहा था।
  • मुगलों ने अपने पूर्वी सीमांत को सुरक्षित करना चाहा।

आक्रमण की भूमिका:

  • 1575 में, अफगान नेता जुनैद ने झारखंड के रास्ते बिहार जाने का प्रयास किया; रामपुर (हजारीबाग) के पास हार गया।
  • यह कोकराह के रणनीतिक स्थान के प्रति मुगलों की जागरूकता का संकेत देता है।

मुगल आक्रमण (1585 ई.):

  • शाहबाज़ ख़ान कंबू ने कोकराह में मुगल सेना का नेतृत्व किया।
  • क्षेत्र को लूटा गया; नागवंशी शासक ने आत्मसमर्पण किया और खिराज देने पर सहमति दी।

शासक की पहचान:

  • अकबरनामा और मआसिर-उल-उमरा में शासक का नाम मधु सिंह बताया गया है।
  • कुछ ब्रिटिश कालीन रिकॉर्ड उन्हें बैरी साल कहते हैं, जो संभवतः एक गलत पहचान है।
  • विद्वान उन्हें मधु करण साहि (मधुकर शाह) के रूप में पहचानते हैं।

आक्रमण के बाद की घटनाएँ:

  • मधु करण साहि संभवतः मुगल दरबार गए और विश्वास अर्जित किया।
  • नागवंशी शासकों ने ‘शाह’ या ‘साहि’ की उपाधि अपनानी शुरू की, जो मुगलों की नकल थी।

साम्राज्य की सेवा:

  • 1592 में, मधु करण साहि ने यूसुफ चक के अधीन उड़ीसा में एक मुगल अभियान में भाग लिया।
  • इससे उनकी मुगलों के प्रति निष्ठा स्पष्ट होती है।

मधु करण साहि के बाद:

  • संभवतः 1600 से पहले मृत्यु हो गई; नागवंशी अभिलेखों के अनुसार 1608 तक शासन किया।
  • उनके उत्तराधिकारी दुर्जन साल थे, जिनका जिक्र तुज़ुक-ए-जहांगीरी में जहांगीर के शासनकाल में होता है।

नागवंशी और मुगल: प्रारंभिक झारखंड में हीरे, विरोध और वंशों की कहानी

कोकराह (वर्तमान रांची क्षेत्र) ने 17वीं सदी की शुरुआत में मुगलों का ध्यान निम्नलिखित कारणों से आकर्षित किया:

  • रणनीतिक स्थान
  • संख नदी में पाए जाने वाले हीरे

दुर्जन साल, नागवंशी शासक, ने सम्राट जहांगीर के शासन में खिराज (कर) देने से इनकार करते हुए मुग़ल सत्ता को खुली चुनौती दी।

मुगल अभियानों की श्रृंखला:

1612: ज़फ़र ख़ान के नेतृत्व में पहला आक्रमण हीरों के क्षेत्रों तक पहुँचा, लेकिन बीमारी और अन्य जिम्मेदारियों के कारण अधूरा छोड़ दिया गया।

1615: इब्राहीम ख़ान, बिहार का नव-नियुक्त सूबेदार, ने दूसरा आक्रमण किया:

  • दुर्जन साल द्वारा भेजे गए हीरे और हाथियों को शांति प्रस्ताव के रूप में ठुकरा दिया गया।
  • दुर्जन साल को एक गुफा में छिपा हुआ पकड़ लिया गया।
  • कोकराह को लूटा गया और दुर्जन साल को ग्वालियर किले में बंदी बना लिया गया।

हीरों की समझ से मिली मुक्ति:

  • जहांगीर ने दुर्जन साल को दरबार में बुलवाया ताकि दो संदिग्ध हीरों की जांच कर सके।
  • दुर्जन साल ने दो मेढ़ों का उपयोग कर असली और नकली हीरे के बीच फर्क बताया।
  • उनकी बुद्धिमत्ता से जहांगीर प्रभावित हुआ:
    • दुर्जन साल को मुक्त किया गया
    • उनका राज्य पुनः सौंपा गया
    • शाह’ की उपाधि प्रदान की गई
    • उन्हें सम्राट की उपस्थिति में बैठने की अनुमति दी गई
    • हर वर्ष ₹6,000 का निश्चित कर तय किया गया

1627 में वापसी और पुनः सत्ता प्राप्ति:

  • निर्वासन के दौरान उनका सिंहासन एक रिश्तेदार द्वारा हड़प लिया गया था।
  • दुर्जन साल ने अन्य निर्वासित राजाओं की मदद से सत्ता वापस पाई।
  • कुछ दरबारियों ने आंतरिक संघर्ष के बजाय निर्वासन को चुना।

राजधानी का स्थानांतरण और विरासत:

  • राजधानी को खुखरा से दोइसा स्थानांतरित किया गया।
  • वहाँ नवरतनगढ़ किला बनवाया:
    • पाँच मंज़िला महल
    • खाई (moat) और “जल द्वार”
    • मुगल शैली की वास्तुकला से प्रेरित

विरासत:

  • दुर्जन साल को याद किया जाता है:
    • उनके संघर्ष और दृढ़ता के लिए
    • राजनयिक कौशल के लिए
    • सांस्कृतिक और स्थापत्य योगदान के लिए
  • उनकी कहानी लोकगीतों और नवरतनगढ़ के खंडहरों में जीवित है।

भूला हुआ संघर्ष

रघुनाथ शाह का मुगलों के विरुद्ध प्रतिरोध (1640–1690 ई.)

रघुनाथ शाह:

  • नागवंशी शासक, कोकराह (वर्तमान रांची क्षेत्र)
  • शासनकाल: लगभग 1640–1690 ई.
  • अक्सर राम शाह से भ्रमित किया जाता है, लेकिन बोरिया मंदिर (1665) के शिलालेख से उनके शासन की पुष्टि होती है

मुगल ख़तरा:

  • स्थानीय परंपराओं में शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान मुग़ल आक्रमण का ज़िक्र है
  • रघुनाथ शाह ने उसे विफल किया, लेकिन प्रमुख मुग़ल अभिलेखों में इसका उल्लेख नहीं

टवर्नियर का विवरण:

  • फ्रांसीसी यात्री जीन-बैप्टिस्ट टवर्नियर ने “सोमेलपुर” नामक क्षेत्र में मुग़ल अभियान का ज़िक्र किया है
  • इतिहासकारों का मानना है कि “सोमेलपुर” कोकराह ही है
  • “गुएल” नदी, हीरे के लिए प्रसिद्ध संख नदी मानी जाती है

जली हुई धरती नीति (Scorched Earth Strategy):

  • रघुनाथ शाह ने जनता को सुरक्षित स्थानों पर भेजा, अन्न भंडार जला दिए
  • मुग़ल सेना अकाल का शिकार हुई, अंततः संधि करनी पड़ी
  • रघुनाथ ने प्रतीकात्मक कर देकर संघर्ष टाल दिया

विरासत:

  • अहिंसात्मक प्रतिरोध और रणनीतिक चातुर्य का दुर्लभ उदाहरण
  • स्थानीय लोककथाएँ, विदेशी यात्रियों के वर्णन और शिलालेखों में प्रतिबिंबित
  • मुग़ल साम्राज्यवाद के विरुद्ध क्षेत्रीय शक्ति की दृढ़ता को उजागर करता है

प्रारंभिक मुग़ल संपर्क: रांची और पलामू – छोटानागपुर का एक निर्णायक मोड़

रांची: अलगाव से संपर्क की ओर

  • नागवंशी राजा रघुनाथ शाह ने पहले संघर्ष का अनुभव किया, फिर मुग़लों से संबंध बेहतर हुए
  • सदियों के अलगाव का अंत हुआ, उत्तर भारतीय राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभाव बढ़ा
  • प्राइमोजेनिचर (ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकार) और मुग़ल प्रभाव वाली प्रशासनिक प्रणाली अपनाई गई
  • मुग़ल स्थापत्य से प्रेरित मंदिर निर्माण प्रारंभ
  • उत्तर भारतीय ब्राह्मणों और सैनिकों को भूमि दी गई – धार्मिक व सामाजिक बदलाव आए
  • निम्न जाति हिंदू और मुस्लिम प्रवासी बसने लगे – मुग़ल या हिंदू जागीरदारों के अधीन
  • तमाड़ और बुरवा तक क्षेत्रीय विस्तार हुआ – क्षेत्रीय एकीकरण का संकेत

पलामू: चेरो वंश का उदय

  • मुग़ल दस्तावेजों में पलामू को “पलौन/पलून” कहा गया
  • चेरो वंश का उदय 1613 ई. के आसपास भगवत राय के नेतृत्व में (कुछ स्रोत 1585 मानते हैं)
  • रक्सेल राजपूतों को हटाकर खरवार जैसे जनजातीय सहयोगियों की मदद से सत्ता में आए
  • सैन्य जागीर प्रणाली से सत्ता को स्थिर किया गया; प्रारंभिक उत्पत्ति रोहतास क्षेत्र मानी जाती है
  • महरता चेरो से संबंध – जिन्होंने 1538 में शेरशाह सूरी का विरोध किया था
  • खवास खाँ द्वारा सफेद हाथी को पकड़ने की कथा – मुग़ल महत्वाकांक्षा का प्रतीक
  • चेरो पर मुग़ल अधीनता देर से हुई – 16वीं सदी के अंत तक सीमित सफलता

पलामू के चेरो: प्रतिरोध और प्रतिद्वंद्विता

अकबर के अधीन मुग़ल अभियान

  • 1590: राजा मानसिंह ने भगवत राय के विरुद्ध अभियान चलाया
  • चेरो ने पहाड़ी मार्ग रोके, पराजित हुए; 54 हाथी और माल-असबाब अकबर को भेजा गया
  • मुग़ल सैनिक तैनात हुए, पर पलामू सीमित रूप से ही एकीकृत रहा
  • टोडरमल के बंदोबस्त में “पुंदाग (पलामू)” का काल्पनिक राजस्व दर्ज

जहाँगीर काल में विद्रोह और पुनः उभार

  • अकबर की मृत्यु के बाद मुग़ल नियंत्रण कमजोर पड़ा
  • भगवत राय के बाद अनंत राय शासक बने; बिहार के सूबेदार अफज़ल खाँ ने 1607 में असफल अभियान चलाया
  • अनंत राय के बाद सहबल राय; मुग़ल सत्ता को ठुकराया, राजकीय कारवाँ लूटे
  • चेरो परंपरा के अनुसार सहबल को दिल्ली में बाघ से लड़कर मारा गया – पुष्टि नहीं

प्रताप राय और किलेबंदी

  • प्रताप राय ने सतबरवा के पास पुराना पलामू किला बनवाया
  • 1632 में बिहार के मुग़ल सूबेदार द्वारा मांगे गए ₹1,36,000 कर को चुकाने से इनकार किया
  • लगातार दबाव झेला, फिर भी क्षेत्रीय स्वायत्तता बनाए रखी

सीमा विस्तार

  • चेरो राज्य कनहर नदी से ~71 मील पटना के दक्षिण तक फैला
  • कोठी, कुंडा और देवगन में किले बनाए गए

विरासत

  • मुग़ल विस्तारवाद के विरुद्ध जनजातीय प्रतिरोध का प्रतीक
  • नागवंशियों की तरह चेरो भी साम्राज्य के सामने स्थानीय ताकतों की दृढ़ता के उदाहरण

17वीं सदी में मुग़ल-चेरो संघर्ष

संघर्ष की भूमिका

  • प्रताप राय ने 1640 के दशक में मुग़ल प्रभुत्व को चुनौती दी
  • सूबेदार अब्दुल्ला ख़ान ने पहले नजरअंदाज किया; नए सूबेदार शाइस्ता ख़ान ने अभियान चलाया
  • 12 अक्टूबर 1641: पटना से 20,000 मुग़ल सैनिकों ने पलामू की ओर कूच किया

पहला घेरा (1642)

  • चेरो के छापामार युद्ध ने मुग़लों को धीमा किया, पर तोपखाने से भारी नुकसान हुआ
  • प्रताप राय ने आत्मसमर्पण किया, ₹80,000 कर दिया, वफादारी की शपथ ली
  • शाइस्ता ख़ान गर्मी और वर्षा के कारण लौट गया

पुनः विद्रोह और आंतरिक संघर्ष (1643)

  • प्रताप फिर विद्रोही हो गया; उसके चाचा दरिया राय और तेज राय ने मुग़लों से मिलकर षड्यंत्र किया
  • दरिया ने देवगन किला सौंपा; तेज ने थोड़े समय के लिए सत्ता हथियाई
  • प्रताप ने बंदीगृह से भागकर फिर सत्ता प्राप्त की

दूसरा घेरा और मुग़ल जीत (1643–1644)

  • जबरदस्त ख़ान के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने मंगरह पर कब्जा किया
  • प्रताप ने आत्मसमर्पण किया, ₹1,00,000 अदा किया, 1,000 घोड़ों की मनसबदारी प्राप्त की
  • 1644 में पलामू उसे एक तुयुल (जागीर) के रूप में दिया गया

परिणाम और मेदिनी राय का उदय

  • प्रताप लगभग 1647 तक वफादार रहा; संभवतः 1657 से पहले मृत्यु हो गई
  • भूपाल राय अल्पकालिक उत्तराधिकारी बने; 1658 के आसपास मेदिनी राय सत्ता में आए
  • मेदिनी राय ने मुग़ल अस्थिरता के दौरान चेरो शक्ति को पुनर्जीवित किया

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Related Post

झारखंड के ऐतिहासिक किले और महल: एक संपूर्ण जिला-वार मानचित्र झारखंड के सदान: एक विस्तृत परिचयझारखंड के ऐतिहासिक किले और महल: एक संपूर्ण जिला-वार मानचित्र झारखंड के सदान: एक विस्तृत परिचय

सदान कौन हैं? सदान को झारखंड के गैर-जनजातीय मूल निवासी माना जाता है।हालाँकि उन्हें अनुसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है, फिर भी इस क्षेत्र में उनकी

झारखंड की प्रसिद्ध हस्तियांझारखंड की प्रसिद्ध हस्तियां

झारखंड के महान स्वतंत्रता सेनानी: शौर्य, संघर्ष और बलिदान की गाथा झारखंड की धरती वीरता और बलिदान की अमर गाथाओं से समृद्ध रही है। यहाँ के अनेक सेनानियों ने ब्रिटिश