झारखंड पर प्रारंभिक सभ्यताओं का प्रभाव
चोटानागपुर में सिंधु घाटी सभ्यता का कोई ठोस प्रमाण नहीं है।
प्रारंभिक आर्यपूर्व सभ्यता में द्रविड़ तत्वों का समावेश था।
द्रविड़ों के योगदान:
- भगवान शिव की महादेव रूप में पूजा
- मातृ देवी की पूजा
- व्यापार और शासन व्यवस्था की शुरुआत
समाज और शासन का विकास
- प्राचीन काल में जनसंख्या विरल थी
- कृषि की प्रारंभिक पद्धति झूम खेती (slash-and-burn farming) थी
- बौद्ध और जैन भिक्षुओं का जनजातीय जीवन पर प्रभाव
- परहा पंचायत, पाहन और मुंडा जैसी सामाजिक व्यवस्थाओं का उदय
- आर्य प्रभाव से ब्राह्मणवाद और पुरोहित वर्ग का प्रवेश
- नागवंशियों के आगमन से राजशाही की स्थापना
- व्यापारी, कारीगर और प्रशासनिक वर्गों का विकास
मुगल काल में:
- मध्यवर्ग का उदय
- चौधरी, मुकदम, घटवारी, दीवान जैसे पदों की स्थापना
- बाहरी लोगों के प्रवेश से खुदकटी गाँवों की स्वायत्तता में विघ्न
जनजातीय सामाजिक संगठन
A. उराँव जनजाति – परहा प्रणाली
- परहा: गाँवों का एक समूह, एक प्रशासनिक इकाई
- परहा राज्य: परहा राजा द्वारा शासित
मुख्य पद:
- परहा राजा – राजा
- दीवान – प्रधानमंत्री
- पनारी – सहायक
- कोटवार – संदेशवाहक
B. मुंडा जनजाति – मांकी प्रणाली
- परहा के समान, परन्तु मुखिया मांकी कहलाता है
- गाँव का प्रमुख – मुंडा
- भूमि के मूल बसने वाले – भुइंहर
- भुइंहर खूँट – वंशावली का संकेत
मुख्य पद: महतो, पाहन, नैगस
C. खुदकटी गाँव
- भूमि को साफ कर बसने वाले परिवारों द्वारा स्थापित
- भूमि का स्वामित्व इन्हीं परिवारों के पास
अन्य जनजातीय शासन प्रणालियाँ
A. हो जनजाति (सिंहभूम)
- बड़ी इकाई: पीर (5–20 गाँवों का समूह)
- पीर का मुखिया: मांकी
B. संथाल जनजाति
- सामाजिक इकाई: परगना (गाँवों का समूह)
प्रमुख:
- परगना / परगनाईत – क्षेत्रीय प्रमुख
- मांझी – गाँव प्रमुख
- गोड़ैट – पुजारी
- सरदार – उच्चतम सामाजिक प्रमुख
C. आदिम जनजातियाँ: बिरहोर, कोरबा, पहाड़िया, पहाड़ी खरिया
- सांस्कृतिक रूप से कम विकसित
- शिकार और संग्रह पर निर्भर
- सामाजिक इकाई: टांडा (परिवारों का समूह)
- प्रमुख: नया / नैया
कोरबा जनजाति:
- प्रमुख: मुखिया
- कई गाँवों के मुखिया मिलकर ‘बड़मुखिया’ चुनते हैं
पहाड़ी खरिया (सावर):
- प्रमुख: प्रधान
- सहायक: गोड़ैट
जनजातीय समाज में रक्त-संबंध प्रणाली
रक्त-संबंध (किंशिप) व्यक्तियों को रक्त या सामाजिक मान्यता के आधार पर जोड़ता है।
A. समाजशास्त्रियों द्वारा परिभाषा:
- चार्ल्स विनिक: वास्तविक या कल्पित रक्त-संबंधों पर आधारित सभी सामाजिक संबंध
- रॉबिन फॉक्स: जैविक संबंधों पर आधारित बंधन
B. किंशिप के प्रकार:
- रक्त-संबंधी (Consanguineous): माता-पिता, भाई-बहन
- विवाह-संबंधी (Affinal): पति-पत्नी, ससुराल पक्ष
C. किंशिप वर्गीकरण:
- प्राथमिक संबंध: पिता-पुत्र, भाई-बहन
- द्वितीयक संबंध: चाचा-भतीजा, दादी-पोता (33 प्रकार)
- तृतीयक संबंध: परदादा, दूर के चचेरे भाई (151 प्रकार)
गोत्र और टोटेम प्रणाली
A. गोत्र क्या है?
- एक वंश या कुल, जो एक सामान्य पूर्वज से उत्पन्न होता है
- केवल मातृसत्तात्मक या पितृसत्तात्मक, दोनों नहीं
- सामाजिक पहचान और विवाह नियमों का आधार
B. गोत्र संरचना:
- भ्रातृदल: कई गोत्रों का समूह
- गोत्रार्ध: कुल गोत्रों का आधा
- जनजाति (जनजाति): कई गोत्रों से बनी जाति
C. सांस्कृतिक आधार:
- हिंदुओं में: ऋषियों के नाम पर गोत्र
- जनजातियों में: पौधे, पशु, पक्षी या प्रकृति पर आधारित गोत्र नाम
D. गोत्र के कार्य:
- धार्मिक पहचान
- सामाजिक व्यवहार और समूह मानदंडों का निर्धारण
- समूह की सुरक्षा
- नजदीकी रिश्तों में विवाह निषेध (बहिर्गमन)
- भूमि स्वामित्व और उत्तराधिकार तय करता है
- जिम्मेदारियों और उत्तराधिकारी तय करता है
जनजातीय जीवन में टोटेमवाद
- प्रत्येक गोत्र का एक प्रतीकात्मक पशु, पौधा या वस्तु होता है (टोटेम)
- टोटेम पवित्र होता है और गोत्र सदस्य उसे हानि नहीं पहुँचाते
- उदाहरण: कछप गोत्र (कछुआ) → टोटेम = कछुआ
- टोटेम का सम्मान, पूजा और संरक्षण आवश्यक
झारखंड का सामाजिक ढांचा: परंपराएँ, वर्जनाएँ और विवाह प्रणाली
सामाजिक वर्जनाएँ
- वर्जनाएँ केवल जनजातीय समाज तक सीमित नहीं, विश्वव्यापी हैं
- जनजातीय समाज में वर्जनाएँ निम्न से जुड़ी होती हैं:
- विवाह प्रथाएँ
- खाद्य आदतें
- यौन संबंध
- धार्मिक व सामाजिक व्यवहार
- इनका उल्लंघन करने से अलौकिक दंड की आशंका होती है
- जनजातीय समूहों में इन नियमों का पालन गंभीरता से किया जाता है
सामान्य वर्जनाएँ:
- टोटेम पूजा और गोत्र नियम:
गोत्र टोटेम पवित्र होता है; उसे क्षति पहुँचाना वर्जित
समान गोत्र में विवाह पूर्णतः वर्जित - लिंग आधारित निषेध:
- हो महिलाएँ हल या कृषि उपकरण नहीं छूतीं
- संथाल महिलाएँ मांझी थान (पूजास्थल) में प्रवेश नहीं करतीं
- मुंडा महिलाएँ धान नहीं बोतीं, छत नहीं चढ़तीं, श्मशान नहीं जातीं
- विवाहित बेटियाँ सरहुल उत्सव का प्रसाद नहीं खा सकतीं
- मासिक धर्म वर्जनाएँ:
हिंदू परंपराओं के समान, मासिक धर्म के दौरान धार्मिक स्थलों में प्रवेश वर्जित
(मदन एवं मजूमदार के अनुसार वर्जनाओं के उद्देश्य):
- उत्पादक – कृषि उत्पादन को सुनिश्चित करना
- सुरक्षात्मक – व्यक्ति या समुदाय की सुरक्षा
- प्रतिबंधात्मक – दूसरों को हानि पहुँचाने से रोकना
झारखंड की जनजातियों में विवाह प्रथाएँ
सामान्य विशेषताएँ:
- बहिर्गमन (Exogamy): गाँव, गोत्र, टोटेम समूह के बाहर विवाह
- अंतर्गमन (Endogamy): प्रायः एक ही जनजाति में विवाह
- वधू मूल्य (Bride Price): विवाह से पूर्व लिया जाता है
- पुनर्विवाह व बहुपति/बहुपत्नी प्रथा: कई जनजातियों में स्वीकार्य
- निषिद्ध प्रथाएँ:
- निकट संबंधियों में विवाह
- एक ही गोत्र में विवाह
जनजाति अनुसार विवाह प्रथाएँ
मुंडा जनजाति:
- आरंभ में वयस्क विवाह, बाद में बाल विवाह
- वर को वधू के परिवार जाना पड़ता है, वधू मूल्य तय होता है
विवाह प्रकार:
- हरण विवाह: मेले/बाजार से अपहरण
- हथ विवाह: वधू का जबरन वर के घर प्रवेश
- सेवा विवाह: वर वधू के परिवार में सेवा करता है
- विधवा/तलाकशुदा विवाह: स्वीकार्य
उराँव जनजाति:
- बाल विवाह नहीं
- माता-पिता वधू चुनते हैं और शर्तें तय करते हैं
- मड़वा समारोह: सिंदूरदान मंदिर में होता है
संथाल जनजाति:
- कठोर गोत्र नियम, समान गोत्र में विवाह निषिद्ध
- एकपत्नी प्रथा सामान्य
- गोत्र उल्लंघन पर ‘बितलाहा’ (सामाजिक बहिष्कार)
- विधवा और लेवीरेट/सोररेट विवाह मान्य
विवाह प्रकार:
- सदाई बापला
- गोलैती बापला
- डुंकी डिपिल बापला
- घाड़ी जवई बापला
- अपगिर बापला
- इटूट बापला
- निर्बोलोक बापला
- बहादुर बापला
- संगा बापला
- किरिंग जवई बापला
असुर जनजाति:
- गोत्र के पार विवाह सामान्य
- विवाह तय करने में माता-पिता की भूमिका
- वधू मूल्य अनिवार्य
- पुनर्विवाह और तलाक स्वीकार्य
- कभी-कभी बिना विवाह के साथ रहना भी सामान्य
बिरहोर जनजाति:
- माता-पिता द्वारा तय विवाह
- निकट संबंधों में विवाह निषिद्ध
- विवाह युवावस्था में
कोरवा जनजाति:
- एक पत्नी प्रथा
- माता-पिता द्वारा विवाह तय
- साड़ी, मिठाई और वधू मूल्य जरूरी
- प्रेम और भाग कर विवाह भी स्वीकार्य
हो जनजाति:
- युवा अपने जीवनसाथी चुन सकते हैं
- बाल विवाह नहीं, लेकिन बहुपत्नी प्रथा है
- अंडी विवाह: सबसे प्रतिष्ठित
अन्य प्रकार:
- डिकू अंडी
- राजी खुशी
- अंदर विवाह
- विधवा से भाई का विवाह
खरिया जनजाति:
- गोत्र के भीतर विवाह वर्जित
- विधवा और भाभी से विवाह मान्य
- सामान्य विवाह: खरीदी, विनिमय, अपहरण
किसान और भूमिज जनजातियाँ:
- एक पत्नी एक पति
- विवाह वयस्कावस्था में
चेरो जनजाति:
- जाति के भीतर विवाह
- विवाह प्रकार: डोला, घराउ, चुराउ
- डोला और घराउ गरीबों में आम
खरवार जनजाति:
- बाल विवाह आदर्श माना जाता है
- वधू मूल्य सामान्य
- पुनर्विवाह स्वीकार्य
झारखंड में जनजातीय विवाहों के विशिष्ट प्रकार
सेवा विवाह: जब वर वधू मूल्य नहीं दे सकता, तो वह वधू के घर 5–6 वर्षों तक सेवा करता है। यह विवाह मुण्डा, संताल, बिरहोर समुदायों में सामान्य है।
प्रेम विवाह (भागकर विवाह): जब युवा प्रेमी माता-पिता से स्वीकृति नहीं पाते तो भागकर विवाह करते हैं। बाद में परिवार वाले स्वीकार कर लेते हैं। यह विवाह मुण्डा, खरिया, बिरहोर जनजातियों में प्रचलित है।
हरण विवाह (अपहरण विवाह): लड़की को मेले या बाजार से ले जाया जाता है—अधिकतर यह आपसी सहमति पर आधारित होता है। खरिया, बिरहोर, मुण्डा और सौरिया पहाड़िया जनजातियों में पाया जाता है।
हठ विवाह (बलपूर्वक विवाह): लड़की बिना अनुमति के लड़के के घर चली जाती है। यदि वह वापस जाने से इनकार करती है, तो विवाह दबाव में स्वीकार कर लिया जाता है। यह मुण्डा, हो, खरिया, बिरहोर में देखा जाता है।
गोल्टी विवाह (विनिमय विवाह): दो परिवार आपस में भाई-बहन की अदला-बदली कर विवाह करते हैं।
जनजातीय जीवन में युवक-युवती शालाएँ (युवगृह)
गलतफहमियाँ: सतही शोध के कारण इन्हें अक्सर यौन संस्थान समझा गया।
वास्तविकता: ये प्रशिक्षण केंद्र हैं, जिनका उद्देश्य है:
- वैवाहिक जिम्मेदारियों की शिक्षा
- गोत्रीय ज्ञान
- सामाजिक एवं सांस्कृतिक कर्तव्यों की जानकारी
ऐसे युवक-युवती शालाएँ विश्व की कई आदिम जातियों में पाई जाती हैं। मानवशास्त्री मालिनोव्स्की ने ट्रोब्रियन द्वीपों में इसी तरह की संस्थाओं का वर्णन किया। विद्वान ग्रिग्सन ने इन्हें युवाओं के लिए शैक्षणिक संस्थान बताया।
उत्पत्ति के सिद्धांत
- रक्त संबंधों में विवाह से रोकने और युवाओं को माता-पिता की अंतरंगता से दूर रखने हेतु।
- घुमंतू या शिकारी जनजातियों में युवाओं को जंगली जानवरों व शत्रुओं से सुरक्षा देना।
- सांस्कृतिक शिक्षा हेतु सामूहिक आवास उपलब्ध कराना।
झारखंड में युवक-युवती शालाएँ और सांस्कृतिक परंपराएँ
झारखंड की जनजातियों में युवगृह सामाजिक, सांस्कृतिक एवं यौन शिक्षा के केंद्र होते हैं, जो युवाओं को वैवाहिक जीवन के लिए तैयार करते हैं। बुजुर्गों द्वारा यह शिक्षा दी जाती है।
युवगृहों के प्रकार:
- गिटी या गिटिओरा (मुण्डा, हो, असुर, सौरिया पहाड़िया): गांव के बाहर झोपड़ी जैसे होते हैं, बुजुर्ग महिलाएं संचालित करती हैं। कानून, आचार, विवाह आदि की शिक्षा दी जाती है।
- धुमकुडिया या भूमशुक्रिया (उरांव):
- तीन चरण:
- पुन्ना जोन्खर (10–11 वर्ष)
- माजतुरिया जोन्खर (15–16 वर्ष)
- कोहा जोन्खर (20–21 वर्ष, विवाह तक)
- लड़कों का युवगृह: जोन्खेड़पा; लड़कियों का: पेल्लोएड़पा।
- लड़कियाँ मग पूर्णिमा को प्रवेश करती हैं, जिन्हें घांघरा कहा जाता है:
- सन्नी पेल्लर (प्रथम वर्ष)
- चौरहा जोन्खर (द्वितीय वर्ष)
- कोहा पेल्लर (तृतीय वर्ष)
- मान्यता: यौन संबंध से गर्भ नहीं ठहरता; यदि ठहरे तो यह धर्मेश की इच्छा मानी जाती है और विवाह कर दिया जाता है।
- तीन चरण:
- टांड़ा (बिरहोर, कोरवा): समुदाय में एक युवा शाला अवश्य होती है; भुइयां इसे ‘धगरावास’ कहते हैं।
- घोटुल (संताल):
- गांव के बाहर मिट्टी की झोपड़ी; दीवारों पर प्रतीकात्मक कला।
- प्रमुख: सिरेदार; साल में एक बार प्रवेश।
- सेवा, यौनता, आदर्श जीवन व सामाजिक एकता की शिक्षा।
- शाम को संगीत, नृत्य, जोड़े बनते हैं और रातभर साथ रहते हैं; सुबह खाली कर दिया जाता है।
युवगृहों का पतन
- ईसाई मिशनरियों के विरोध, शहरीकरण, औद्योगीकरण और गैर-जनजातीय संपर्क से संस्कृति का क्षरण।
- चेरो, खरवार, संताल जैसे समूहों के झारखंड में आने से बिरहोर, खरिया जैसे मूल जनजातियों का विस्थापन।
- हिंदू-मुस्लिम संपर्क से जातिप्रथा, मूर्तिपूजा, ब्राह्मणवादी संस्कार, खान-पान में परिवर्तन आया।
- पारंपरिक देवताओं जैसे सिंगबोंगा और ओरी बोंगा की मूर्तियाँ बनने लगीं; शिव-पार्वती बने बोगा-चंडी बोंगा; खरिया सूर्य देव को बेला भगवान कहने लगे।
- सिंदूर, उपवास, स्नान, हिंदू शैली के मेले-त्योहारों (जत्रा मेला) का प्रवेश हुआ।
- वस्त्र-आभूषण में बदलाव: पगड़ी, साड़ी, लहंगा, कंगन, बाली आदि प्रचलित हुए; साथ ही गैर-जनजातियों ने बहुरता, सेनायीजिरा, हसुली, तरकी, चूर्ला जैसे जनजातीय रीतियों और गहनों को अपनाया।
ब्रिटिश शासन का प्रभाव
- औद्योगीकरण से जनजातीय लोग अपनी भूमि से विस्थापित हुए; कई लोग चाय बागानों व शहरों में मजदूर बने।
- परिणामस्वरूप मूल क्षेत्र में जनसंख्या घटी, परंतु भौगोलिक विस्तार हुआ।
- संस्कृतिकरण हुआ—चेरो, खरवार, भुइयां, भूमिज जैसे समुदायों ने स्वयं को राजपूत घोषित किया।
- भूमि हानि से एक जनजातीय मध्यम वर्ग उभरा, विशेषकर मुण्डा व मानकी प्रभावित हुए।
- मिशनरियों ने बहुपतित्व व स्वतंत्र यौनता के विरुद्ध नैतिक संहिता लागू की; इससे विद्रोह हुआ, जो बाद में सुधार आंदोलनों में बदला।
जनजातियों के भोजन की आदतें
- मुण्डा: चावल, दाल; गरीब लोग गोंदली, मडुआ, मक्का खाते; पसंदीदा पेय: हांडिया (चावल की शराब)।
- उरांव: वही आहार, साथ में मांस, मछली; हांडिया प्रिय।
- संताल: डाका उड़द (दाल-चावल-सब्जी), मार्ह-भात, जोंडरा डाका (मक्का खिचड़ी), सत्तू, चूड़ा, मूढ़ी।
- असुर: वन्य उपज जैसे कंद-मूल, फल, मांस।
- चेरो: चावल, जौ, तिल, उड़द, मडुआ, कुरथी, जिनोरा; मुख्यतः शाकाहारी, परंतु कभी-कभी मांस भी।
वस्त्र एवं आभूषण
- मुण्डा: पुरुष: बतोही, बुजुर्ग: भगवाना, युवा: करघानी (कमर में बंधी), सर्दी में कोटा कंबल; महिलाएँ: परिया (छोटी साड़ी), लहंगा।
- उरांव: मुण्डा जैसे।
- संताल: कुर्पनी, कांचा, पंची, परहंड, दहड़ी, पटका; महिलाएँ पीतल, कांस्य, तांबे के गहने पहनती थीं; गोदना आम था।
- चेरो: पूर्व में ऊपर का हिस्सा नग्न रखते थे, बाद में साड़ी, फ्रॉक, शर्ट पहनने लगे; आभूषण: कर्णफूल, तरकुल, हसुली, बाजुआ, करूणा, पकुआ, अंगूठी, बिछिया; गोदना सामान्य।
परिवार एवं सामाजिक संरचना
- पितृसत्तात्मक व्यवस्था: अधिकांश जनजातियों में पुरुष प्रधानता।
- पुरुष संपत्ति व निर्णयों के अधिकार रखते हैं।
- महिलाएँ खाना बनाना, बुनाई, बच्चों की देखभाल करती हैं; परंतु संपत्ति अधिकार नहीं होता।
विशेषताएँ:
- काम का विभाजन: पुरुष, महिला, बच्चे।
- परिवार: एकल या संयुक्त, पिता के नेतृत्व में।
- उत्तराधिकार:
- पितृवंशीय;
- पहले पुत्र, फिर अविवाहित पुत्री, फिर पाटीदार।
- महिलाएँ: धार्मिक अनुष्ठान, शिकार, पंचायत में सीमित भागीदारी।
- बाजार में खरीद-बिक्री की जिम्मेदारी निभाती हैं।
जनजाति-विशिष्ट प्रथाएँ:
- मुण्डा, उरांव, संताल: समान संरचना।
- असुर: पुत्रियों को संपत्ति नहीं; विधवाएँ पति की संपत्ति से केवल भरण-पोषण ले सकती हैं।
- बिरहोर: पुरुष शिकार करते; महिलाएँ केवल सलाह देतीं।
- कोरवा: पितृवंशीय; महिलाएँ सलाह देतीं, पर भूमि स्वामी नहीं बनतीं।
- हो: पहले मातृसत्तात्मक, बाद में पितृसत्तात्मक।
- खरिया: पिता सर्वोच्च होता है।
- चेरो: उत्तराधिकार पुत्रों तक सीमित; कभी-कभी बड़े पुत्र को अधिक हिस्सा; पुत्र नहीं होने पर बेटी का पति समुदाय की स्वीकृति से घरजमाई बन सकता है।
- खरवार: पितृसत्तात्मक नियमों का पालन।